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मिट्टी के बर्तन बनाने वाले निर्माता झेल रहे हैं मंदी की मार
नांगल। त्यौहारों का मौसम चल रहा है, बाजार गुलजार हैं, रंग-बिरंगी रोशनी और सजावट से हर ओर खुशियों का माहौल है। लेकिन इस खुशी के माहौल में, चंदेसर गांव के घमियार जाति के मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कारीगर आर्थिक मंदी की मार झेल रहे हैं।
सुरिंदरपाल सिंह, जो दशकों से अपने पिता का काम पूरी मेहनत और लगन से कर रहे हैं, ने बातचीत के दौरान अपनी समस्याओं को साझा किया। उन्होंने कहा, "हमारी मेहनत की कोई कीमत नहीं रह गई है। लोग चीन में बने सस्ते, लेकिन आकर्षक सामान खरीदते हैं, जिसका सीधा असर हमारे कारोबार पर पड़ता है।"
सुरिंदरपाल ने आगे बताया कि उनका पूरा परिवार दिन-रात इस काम में लगा रहता है, लेकिन उनके परिश्रम का मूल्य वापस नहीं मिलता। उन्होंने अपने काम के प्रति समर्पण के बावजूद बाजार की स्थिति के कारण निराशा व्यक्त की।
वास्तविकता का सामना
इन कारीगरों की स्थिति यह दर्शाती है कि जब बाजार में विदेशी उत्पादों की भरमार होती है, तो स्थानीय कारीगरों को अपनी पहचान और आर्थिक सुरक्षा बनाए रखने में कठिनाई होती है। त्योहारों के दौरान, जब मिट्टी के बर्तनों की मांग बढ़ती है, तब भी ये कारीगर अपनी मेहनत के सही मूल्य से वंचित रह जाते हैं।
इस परिस्थिति ने न केवल उनके व्यवसाय को प्रभावित किया है, बल्कि उनके परिवारों की आर्थिक स्थिति भी दांव पर लग गई है। यदि जल्दी ही इस मुद्दे का समाधान नहीं किया गया, तो ये कारीगर अपनी कला और परंपरा को खोने के कगार पर पहुंच जाएंगे।
उम्मीद की किरण
हालांकि इस कठिनाई के बीच, इन कारीगरों में अपने हुनर और उत्पादों की गुणवत्ता को लेकर एक आशा बनी हुई है। अगर स्थानीय बाजार में समर्थन और पहचान मिले, तो वे अपनी मेहनत का फल फिर से पा सकते हैं।
मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कारीगरों की आवाज़ को सुनना और उनके उत्पादों की कीमत समझना समाज की जिम्मेदारी है, ताकि वे अंधेरे से निकलकर फिर से उजाले की ओर बढ़ सकें।
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रूपनगर
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