मंत्री पुत्र बनाम विधायक : RCA विवाद से भाजपा के भीतर की खींचतान उजागर

भाजपा विधायक जयदीप बिहाणी और स्वास्थ्य मंत्री गजेंद्र सिंह खींवसर के बेटे धनंजय सिंह के बीच चल रही जुबानी जंग इस बात की ओर इशारा करती है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के भीतर भी ‘वंशवाद बनाम संघर्ष से उभरे नेतृत्व’ की बहस अब पर्दे के पीछे नहीं रही।
बिहाणी का बयान : शुरुआत व्यक्तिगत व्यंग्य से
इस पूरे विवाद की शुरुआत शुक्रवार को उस वक्त हुई जब RCA एडहॉक कमेटी के कन्वीनर और भाजपा विधायक जयदीप बिहाणी ने एक जनसभा में बयान दिया—"हिंदुस्तान में मंत्री पुत्र और सरपंच पति बड़ी समस्या हैं।" बिना नाम लिए, लेकिन इशारा पूरी तरह स्पष्ट था—स्वास्थ्य मंत्री गजेंद्र सिंह खींवसर के बेटे धनंजय सिंह की ओर।
बिहाणी ने आगे कहा, "मैं भी विधायक हूं, लेकिन मेरा बेटा न तो MLA का स्टीकर लगाकर घूमता है, न ही किसी कार्यालय में फोन करता है। जनता में गजेंद्र सिंह का प्रभाव है, उनके बेटे का नहीं।"
यह तंज सिर्फ व्यक्तिगत नहीं था, बल्कि भाजपा के भीतर पनप रहे उन युवा नेताओं पर सवाल था जो राजनीतिक विरासत के दम पर संगठन और सार्वजनिक संस्थाओं में जिम्मेदारी पा रहे हैं।
धनंजय सिंह की प्रतिक्रिया : आत्मनिर्भरता की दलील
बिहाणी के इस कटाक्ष का जवाब धनंजय सिंह ने तुरंत एक विस्तृत वक्तव्य जारी कर दिया। उन्होंने खुद को 'वंशवादी नेता' कहे जाने से इनकार करते हुए कहा—
"क्या किसी डॉक्टर के बेटे को डॉक्टर-पुत्र या व्यापारी के बेटे को व्यापारी-पुत्र कहा जाता है? फिर मंत्री पुत्र की रट क्यों?"
धनंजय ने खुद को "जन्म से कमलधारी" बताते हुए भाजपा की विचारधारा से गहरे जुड़ाव का दावा किया। उन्होंने कहा कि उन्होंने 2013 से खींवसर, जोधपुर और नागौर जैसी चुनौतियों से भरी विधानसभा क्षेत्रों में संगठन को खड़ा किया, जहां भाजपा की जमानतें जब्त होती थीं।
राजनीति और क्रिकेट का संगम : RCA की पृष्ठभूमि
राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन कभी खेल के संचालन की संस्था मानी जाती थी, लेकिन बीते एक दशक में यह राजनीतिक टकरावों का केंद्र बन गई है।
कभी वैभव गहलोत (पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बेटे) RCA के अध्यक्ष बने और कांग्रेस का प्रभाव यहां मजबूत हुआ। इसके बाद भाजपा के युवा नेता और पदाधिकारी भी RCA में सक्रिय होने लगे।
धनंजय सिंह इसी पृष्ठभूमि में उभरे चेहरा हैं, जिन्होंने वैभव गहलोत के कार्यकाल को "राजनीतिक व्यवस्था" कहते हुए खुला विरोध किया और RCA में बदलाव लाने की बात कही।
धनंजय कहते हैं—"जब क्रिकेट में आया, तब कांग्रेस की सरकार थी। वैभव गहलोत जैसे चेहरों से टकराकर व्यवस्था को बदला। पद नहीं था, बस संकल्प और संघर्ष था।"
राजनीति में विरासत बनाम संघर्ष की बहस
यह विवाद उस गहरे अंतर्विरोध की झलक है जो भाजपा जैसी पार्टी के भीतर मौजूद है—जहां एक तरफ संगठन आधारित नेतृत्व को प्राथमिकता देने की बात होती है, वहीं दूसरी ओर नेताओं के पुत्रों और परिजनों को महत्वपूर्ण मंचों पर देखा जाता है।
जयदीप बिहाणी की टिप्पणी यहीं सवाल उठाती है : क्या भाजपा भी अब कांग्रेस की तरह ही 'वंशवाद' की राह पर है? क्या कोई कार्यकर्ता सिर्फ इस वजह से संदेह के घेरे में आ जाता है कि वह किसी मंत्री का बेटा है?
धनंजय सिंह अपने बयान में यही सवाल उठाते हैं और कहते हैं—"मेरी राजनीतिक यात्रा का दस्तावेज मेरा सोशल मीडिया है। हर साल का योगदान वहां दर्ज है। आलोचना कीजिए, लेकिन तथ्यों पर आधारित होनी चाहिए।"
भाजपा के भीतर की असहजता
यह विवाद सिर्फ दो व्यक्तियों के बीच की बहस नहीं है, बल्कि भाजपा के प्रदेश संगठन में बढ़ रही असहजता का संकेत है। एक तरफ जयदीप बिहाणी जैसे पुराने संगठन से जुड़े विधायक हैं, जो भाजपा की जड़ों से निकले हैं, दूसरी ओर धनंजय सिंह जैसे नए चेहरे हैं जो परिवारिक पृष्ठभूमि के साथ-साथ राजनीतिक तैयारी भी लेकर आए हैं।
यह वही असहजता है जो पहले कांग्रेस को सालों तक भीतर से खोखला करती रही—‘कार्यकर्ता’ और ‘नेता पुत्र’ के बीच टकराव। अब भाजपा भी इस मोड़ पर खड़ी दिखाई देती है।
क्रिकेट के मुद्दे से भटकती बहस
इस विवाद में एक सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि RCA में क्रिकेट के विकास, पारदर्शिता और नीतिगत सुधार जैसे मूल मुद्दे पूरी तरह हाशिए पर चले गए हैं।
धनंजय खुद इस बात को स्वीकार करते हैं और कहते हैं—"व्यक्तिगत टिप्पणियों के जरिए असल मुद्दे से ध्यान भटकाया जा रहा है। खेल को खेल ही रहने दीजिए। उद्देश्य अगर सुधार है, तो चर्चा विषय केंद्रित होनी चाहिए।"
यह बयान बताता है कि राजनीतिक कटाक्षों और व्यक्तिगत आरोपों की बाढ़ में RCA का असली उद्देश्य—राजस्थान में क्रिकेट की बेहतरी—कहीं पीछे छूट गया है।
यह सिर्फ खेल नहीं, सत्ता का संघर्ष है
जयदीप बिहाणी बनाम धनंजय सिंह की यह जुबानी जंग दरअसल उस लंबी राजनीतिक बहस की प्रतिच्छाया है जो आज हर पार्टी को भीतर से चुनौती दे रही है—"योग्यता बनाम याजमानिता" की।
क्या नेता पुत्रों को संगठनात्मक जिम्मेदारियां सिर्फ उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि के आधार पर दी जानी चाहिए? क्या पुराने संघर्षशील नेताओं की बातों को टकराव मान लिया जाना चाहिए?
इन सवालों के जवाब अभी समय के गर्भ में हैं। लेकिन एक बात तय है—राजस्थान की राजनीति और क्रिकेट दोनों ही इस बहस से अछूते नहीं रहेंगे।
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