टीवी पर लाहौर जीत लिया, ज़मीन पर आँसू बहा दिए

असली सवाल यह है कि क्या देश की सुरक्षा, शहीदों की शहादत और जनता की भावनाएं भी अब मीडिया मार्केटिंग का हिस्सा बन चुकी हैं? भारतीय न्यूज़ चैनल अब सूचना का स्रोत कम और नाटकीय मनोरंजन का मंच अधिक बन चुके हैं। एंकर युद्ध के मूड में होते हैं, पैनल में रिटायर्ड जनरल्स, कट्टर राष्ट्रवादी प्रवक्ता और एक दो "दुश्मन देश" के चेहरे बिठाए जाते हैं। सब चीखते हैं, एक-दूसरे पर चिल्लाते हैं, और दर्शक टीवी से चिपके रहते हैं। CGI से बना नकली बम, मिसाइल के धमाके, और नकली नक्शे यह सब दर्शकों को एक 'महायुद्ध' का आभास कराते हैं। लेकिन जमीनी हकीकत क्या है?
जमीनी हकीकत यह है कि इस पूरे ड्रामे से सिर्फ एक चीज़ मजबूत होती है चैनल की रेटिंग और सरकार की छवि। सर्जिकल स्ट्राइक, सिनेमा और सेंसर: 2016 की उड़ी घटना के बाद भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक किया। अगले साल इसपर आधारित फिल्म "उरी" आई। देश ने इसे हाथोंहाथ लिया। “How’s the josh?” डायलॉग हर बच्चे की जुबान पर चढ़ गया। विक्की कौशल हीरो बन गए, और परेश रावल जैसे अभिनेता पर्दे पर 'रॉ' चीफ अजित डोभाल बन गए जो हर मिशन में एक मोबाइल यूज़ करते और फिर फेंक देते। लेकिन इन सबके बीच असली ऑपरेशन को अंजाम देने वाले सैनिक, उनके परिवार और उनकी बलिदान की कहानी कहीं खो गई।
जब कोई जवान शहीद होता है, तो न्यूज चैनल पहले उसकी फोटो के साथ ब्रेकिंग चलाते हैं “एक और जवान शहीद”, लेकिन अगले ही पल एंकर ट्रेंडिंग टॉपिक पर लौट आता है। सोशल मीडिया और सबूत की राजनीति: जब बालाकोट एयरस्ट्राइक हुआ, तो लोगों ने सोशल मीडिया पर सवाल उठाया। “क्या सबूत हैं?”, “कितने मरे?”। सरकार चुप रही, लेकिन ट्रोल आर्मी सक्रिय हो गई। जिसने भी सवाल उठाया, वह “पाकिस्तानी एजेंट” करार दे दिया गया। राष्ट्रवाद अब ‘साइलेंसिंग टूल’ बन गया है — जो बोलता है, वह देशद्रोही है। जो पूछता है, वह गद्दार है।
जनता से जवाबदेही माँगना अब भी अपराध बना हुआ है, और सोशल मीडिया पर राष्ट्रभक्ति का मतलब बस प्रोफाइल फोटो बदलना और ट्रेंडिंग हैशटैग लगाना रह गया है। शहीद के आँसू और आम आदमी का अकेलापन: मीडिया युद्ध तो दिखाता है, लेकिन युद्ध में जो लोग वाकई मरते हैं, उनका क्या? जम्मू-कश्मीर या उत्तर-पूर्व में जब कोई जवान शहीद होता है, तो क्या उसकी विधवा की पेंशन समय पर आती है? क्या उसके बच्चों को मुफ्त शिक्षा मिलती है? क्या उसकी बूढ़ी माँ को इलाज मिलता है? अक्सर नहीं।
मीडिया एक दिन रोशनी डालता है, लेकिन सरकार और समाज बहुत जल्दी भूल जाते हैं। जो बच जाते हैं, वे अकेले रह जाते हैं। वो मां जो कहती है, “मेरा बेटा तिरंगे में लिपट कर आया, मुझे गर्व है” उसे गर्व के साथ साथ जीवनभर की पीड़ा भी झेलनी पड़ती है। राजनीति और राष्ट्रवाद की साठगांठ: चुनाव के मौसम में यह ‘टीवी युद्ध’ और भी आक्रामक हो जाता है। नेताओं की रैलियों में सर्जिकल स्ट्राइक का ज़िक्र होता है, बटन दबाने को ‘बम गिराने’ जैसा बताया जाता है। विपक्ष के सवाल को "पाक प्रेम" कहा जाता है, और राष्ट्रभक्ति के नाम पर असली मुद्दे बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य सब गायब हो जाते हैं। हर बार चुनाव के करीब कुछ न कुछ "स्ट्राइक" होता है, कभी एयर, कभी डिजिटल, कभी बयानबाज़ी की।
देश की सुरक्षा को एक चुनावी ब्रांड बना दिया गया है। जो वोट न दिला सके, वो देशप्रेम कैसा? युद्ध की असली तस्वीर: जो लोग युद्ध का नारा लगाते हैं, वे कभी युद्ध नहीं लड़ते। युद्ध लड़ते हैं, वो जवान जो पहाड़ी पोस्ट पर जीरो तापमान में बैठते हैं, वो परिवार जो हर फोन कॉल से डरता है, और वो माँ जो हर दरवाज़े की आहट से चौंक जाती है। और आतंकवादी घटनाओं में मारे जाने वाले आम नागरिक उनकी भी कोई आवाज़ नहीं। उनके लिए कोई फिल्म नहीं बनती, कोई नेता श्रद्धांजलि नहीं देता, कोई मीडिया चैनल ब्रेकिंग नहीं चलाता।
हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जहां देशभक्ति अब एक टीवी शो बन चुकी है, फिल्मी स्क्रीन पर बिकने वाली स्क्रिप्ट है और चुनावी रैली में गूंजता हुआ नारा है। असली देशभक्ति सवाल पूछना, पीड़ित की मदद करना, और सच्चाई को पहचानना अब खोती जा रही है। हमें तय करना होगा कि क्या हम इस तमाशे का हिस्सा बनना चाहते हैं या उसके विरोध में खड़ा होना चाहते हैं। क्या हम सिर्फ तालियाँ बजाना चाहते हैं, या शहीद के परिवार के आँसू पोछने वाले बनना चाहते हैं?
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