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फिल्म समीक्षा: जोगी—बेहतरीन कथा-पटकथा, निर्देशन, देख सकते हैं परिवार संग
—राजेश कुमार भगताणी
निर्माता : हिमांशु मेहरा
निर्देशक: अली अब्बास जफर
सितारे—दिलजीत दोसांझ, अमायरा दस्तूर, कुमुद मिश्रा, मोहम्मद जीशान अय्यूब, हितेश तेजवानी, परेश पहूजा
कुछ दिन पूर्व अली अब्बास जफर ने घोषणा की कि वे अपनी अगली फिल्म सलमान खान के साथ बनाने जा रहे हैं, जिसकी पटकथा पर वे काम कर रहे हैं। यह एक एक्शन फिल्म होगी। उनका कहना था कि उन्हें इंतजार है अपनी फिल्म जोगी के प्रदर्शन का, जो जल्द ही नेटफ्लिक्स पर प्रदर्शित होने वाली है। कल रात नेटफ्लिक्स पर जोगी देखने का मौका मिला। फिल्म के विषय के बारे में जानकारी थी लेकिन उम्मीद नहीं थी कि इस विषय पर इतनी बेहतरीन फिल्म देखने को मिलेगी। हालांकि पूर्व में भी इस विषय पर फिल्में बन चुकी हैं लेकिन जोगी जैसी कोई नहीं थी।
जोगी 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में हुए सिख दंगों की कहानी है, क्योंकि इंदिरा गाँधी की हत्या एक सिख ने मारा था, उस भयानक हादसे के बाद दिल्ली में रहने वाले सिखों पर कहर टूटता है।
फिल्म का कथानक निर्देशक अली अब्बास जफर ने ने सुखमणि सदाना के साथ मिलकर लिखा है जो दिल को छूता है। इस कहानी को अलग-अलग रूप में पिछली कई फिल्मों में देखा है लेकिन जोगी की कहानी बहुत गम्भीरता से लिखी गई है। कहानी में कई तनाव भरे क्षण हैं जो दर्शकों के दिलों को दहलाने के साथ ही मानवीयता के साथ जुड़ जाते हैं। फिल्म का कथानक तेजी से आगे बढ़ता है जिससे दर्शक को कुछ भी सोचने का मौका नहीं मिलता है। इसी कथानक के साथ जोगी और कम्मो की प्रेम कहानी भी दिखायी गई है, जो कुछ ही समय के लिए है। कथा-पटकथा के साथ ही अली अब्बास जफर और सुखमणि सदाना ने फिल्म के वजनदार संवाद लिखे हैं, जो दर्शकों को प्रभावित करते हैं।
अभिनय की दृष्टि से नायक, सहनायक और खलनायक (दिलजीत, मोहम्मद जीशान और कुमुद मिश्रा) तीनों ने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया है। दिलजीत ने जोगी की भूमिका जिस तरह से निभाई है, उसकी जितनी तारीफ की जाए उतना कम है। उन्होंने अपने चेहरे पर तनाव, खुद्दारी, त्याग और डर के जो भाव पैदा किए हैं वो दर्शकों को इतना भाते हैं कि अन्त आते-आते दर्शक जोगी से मोहब्बत करने लगता है। कमोबेश ऐसा ही कुछ मोहम्मद जीशान अय्यूब ने अपने अभिनय में दिखाया है। रविन्दर की भूमिका उन्होंने पूरी शिद्दत के साथ परदे पर निभाई है। इस सितारे को बहुत कम मौके मिले हैं लेकिन जब भी परदे पर आते हैं अपनी अलग छाप छोड़ जाते हैं। अरसे बाद परदे पर ऐसा खलनायक देखने को मिला है जिसने किरदार को अंदर तक जीया है। कुमुद मिश्रा को देखकर दर्शकों के मन में उनके लिए घृणा का भाव पैदा होता है। अपनी छोटी सी भूमिका में हितेश तेजवानी ने दिलजीत का अच्छा साथ दिया है। अमायरा दस्तूर को अली अब्बास बहुत कम जगह दी है लेकिन जितनी भी देर वे परदे नजर आती हैं अपनी एक अलग छाप छोड़ जाती हैं।
अली अब्बास जफर का निर्देशन सराहनीय है। उन्होंने पटकथा की माँग के अनुसार अपना काम किया है। फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी इसका संगीत है। जूलियस पैकियम, समीर उद्दीन और राज रणजोध कथानक के अनुरूप संगीत नहीं दे पाए हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि यह एक ऐसी फिल्म है जिसे अपने पूरे परिवार के साथ बैठकर कभी-भी किसी भी समय देखा जा सकता है।
निर्माता : हिमांशु मेहरा
निर्देशक: अली अब्बास जफर
सितारे—दिलजीत दोसांझ, अमायरा दस्तूर, कुमुद मिश्रा, मोहम्मद जीशान अय्यूब, हितेश तेजवानी, परेश पहूजा
कुछ दिन पूर्व अली अब्बास जफर ने घोषणा की कि वे अपनी अगली फिल्म सलमान खान के साथ बनाने जा रहे हैं, जिसकी पटकथा पर वे काम कर रहे हैं। यह एक एक्शन फिल्म होगी। उनका कहना था कि उन्हें इंतजार है अपनी फिल्म जोगी के प्रदर्शन का, जो जल्द ही नेटफ्लिक्स पर प्रदर्शित होने वाली है। कल रात नेटफ्लिक्स पर जोगी देखने का मौका मिला। फिल्म के विषय के बारे में जानकारी थी लेकिन उम्मीद नहीं थी कि इस विषय पर इतनी बेहतरीन फिल्म देखने को मिलेगी। हालांकि पूर्व में भी इस विषय पर फिल्में बन चुकी हैं लेकिन जोगी जैसी कोई नहीं थी।
जोगी 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में हुए सिख दंगों की कहानी है, क्योंकि इंदिरा गाँधी की हत्या एक सिख ने मारा था, उस भयानक हादसे के बाद दिल्ली में रहने वाले सिखों पर कहर टूटता है।
फिल्म का कथानक निर्देशक अली अब्बास जफर ने ने सुखमणि सदाना के साथ मिलकर लिखा है जो दिल को छूता है। इस कहानी को अलग-अलग रूप में पिछली कई फिल्मों में देखा है लेकिन जोगी की कहानी बहुत गम्भीरता से लिखी गई है। कहानी में कई तनाव भरे क्षण हैं जो दर्शकों के दिलों को दहलाने के साथ ही मानवीयता के साथ जुड़ जाते हैं। फिल्म का कथानक तेजी से आगे बढ़ता है जिससे दर्शक को कुछ भी सोचने का मौका नहीं मिलता है। इसी कथानक के साथ जोगी और कम्मो की प्रेम कहानी भी दिखायी गई है, जो कुछ ही समय के लिए है। कथा-पटकथा के साथ ही अली अब्बास जफर और सुखमणि सदाना ने फिल्म के वजनदार संवाद लिखे हैं, जो दर्शकों को प्रभावित करते हैं।
अभिनय की दृष्टि से नायक, सहनायक और खलनायक (दिलजीत, मोहम्मद जीशान और कुमुद मिश्रा) तीनों ने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया है। दिलजीत ने जोगी की भूमिका जिस तरह से निभाई है, उसकी जितनी तारीफ की जाए उतना कम है। उन्होंने अपने चेहरे पर तनाव, खुद्दारी, त्याग और डर के जो भाव पैदा किए हैं वो दर्शकों को इतना भाते हैं कि अन्त आते-आते दर्शक जोगी से मोहब्बत करने लगता है। कमोबेश ऐसा ही कुछ मोहम्मद जीशान अय्यूब ने अपने अभिनय में दिखाया है। रविन्दर की भूमिका उन्होंने पूरी शिद्दत के साथ परदे पर निभाई है। इस सितारे को बहुत कम मौके मिले हैं लेकिन जब भी परदे पर आते हैं अपनी अलग छाप छोड़ जाते हैं। अरसे बाद परदे पर ऐसा खलनायक देखने को मिला है जिसने किरदार को अंदर तक जीया है। कुमुद मिश्रा को देखकर दर्शकों के मन में उनके लिए घृणा का भाव पैदा होता है। अपनी छोटी सी भूमिका में हितेश तेजवानी ने दिलजीत का अच्छा साथ दिया है। अमायरा दस्तूर को अली अब्बास बहुत कम जगह दी है लेकिन जितनी भी देर वे परदे नजर आती हैं अपनी एक अलग छाप छोड़ जाती हैं।
अली अब्बास जफर का निर्देशन सराहनीय है। उन्होंने पटकथा की माँग के अनुसार अपना काम किया है। फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी इसका संगीत है। जूलियस पैकियम, समीर उद्दीन और राज रणजोध कथानक के अनुरूप संगीत नहीं दे पाए हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि यह एक ऐसी फिल्म है जिसे अपने पूरे परिवार के साथ बैठकर कभी-भी किसी भी समय देखा जा सकता है।
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