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राजस्थान के डूंगरपुर जिले के भीलूड़ा गाँव में पत्थरों से होली खेलने की अनूठी परम्परा
मैदान में जब गोफणें तेज़ी से घुमने लगती है तो युद्ध भूमि जैसा नजारा
देखने मिलता है और पाषाण युग सामंजर नजर आता है । देखते ही देखते दर्जनों
लोग लहूलुहान होकर मैदान से बाहर आने लगते हैं और उन्हें उनकेसहयोगी मैदान
के पास ही स्थित अस्पताल में मरहम पट्टी एवं उपचार के लिए ले जाते हैं। जब
राड़ का खेलअपने चरमोत्कर्ष पर होता है तो कई बार इस अद्भुत नजारा को देखने
मैदान के चारों ओर तथा सुरक्षित स्थानोंपर बैठे दर्शक भी निशाना बन जाते
है।
इस आदिवासी क्षेत्र में सदियों से चली आ रहीं इस शौर्ष प्रदर्शन की परंपरा में बदलते युग के साथ कई विकारभी आ गये है लेकिन राड़ के खेल ने आज भी अपना वजुद बरकरार रखा है। प्रचलित लोक मान्यताओं केअनुसार राड़ खेलना यहाँ शौर्य प्रदर्शन के साथ ही हिम्मत एवं बहादुरी का पैमाना और राड़ के दौरान लगनेवाली पत्थरों की चोट से बहते खून को अगले वर्ष का शुभ संकेत माना जाता है। इस अनूठे और अद्भुत प्रदर्शनको देखने दूर-दराज से हजारों लोग आते है और कई विदेशी पर्यटक भी आदिम संस्कृति की झलक पाने औरइसका दीदार करने भीलूड़ा पहुँचते हैं।
क्यों खेली जाती है राड़ ?
यहाँ प्रचलित जन श्रुति और लोक मान्यता के अनुसार मेवाड़ के राणा सांगा के साथ मुग़ल बादशाह बाबर केसाथ खंडवा के युद्ध के मैदान में डूंगरपुर के महारावल उदयसिंह द्वितीय के शहीद होने के बाद उनकी रियासतदो भागों डूंगरपुर और बांसवाड़ा में बंट गई और उनके बड़े पुत्र पृथ्वी सिंह डूंगरपुर और छोटे पुत्र जगमाल सिंहबाँसवाड़ा नरेश बनें। बताते है कि एक बार धुलेंडी के दिन राजा जगमालसिंह का काफिला भीलूड़ा गांव सेनिकल रहा था। उस समय यहां के एक पाटीदार जिसके पालतू कुत्ते का नाम भी जगमाल था को राजा ने जबउसे जगमाल नाम से पुकारते देखा और सुना तो बांसवाड़ा नरेश क्रोधित हो गए और उन्होंने अपने सैनिकों कोपाटीदार को मार देने का आदेश दिया । सैनिकों के डर से जब पाटीदार भाग रहा था तो उसकी इस मैदान मेंउसकी मौत हो गई और उसी मैदान पर पाटीदार की पत्नी अपने पति की चिता पर जल कर सती हुई । उसनेसती होने से पहले राजा और उसके सैनिकों को श्राप दिया कि आज के दिन हर वर्ष इस मैदान पर खून गिरानाहोगा और यदि ऐसा नहीं होने पर गांव में बड़ा अनिष्ट होगा। सती के अभिशाप और किसी अनिष्ट से बचने केलिए मैदान में खून गिराने के लिए पत्थरों की राड़ खेलने की यह परंपरा शुरु हुई थी जो सैकड़ो वर्षों के बाद आज भी बदस्तूर जारी है।
किंवदंतियों के अनुसार सती के वचनों का निर्वहन करने बरसों पहले धुलेंडी के दिन पत्थरों की होली और राड़ खेलने की यह परम्परा शौर्य एवं शक्ति का प्रदर्शन करने के एक आदर्श स्वरूप में लोकारंजन के लिए खेलीजाती थी। राड़ खलने वाले दल सामने वाले दल को सावचेत कर हुए अपने आपको बचाने की हिदायत देतेहुए हाथ से ही पत्थर फेकते की रस्म अदायगी करते थे किसी को चौट पहुँचाना अथवा घायल करना उद्देश्यनहीं होता था लेकिन कालान्तर में गोफन से पत्थर फेकनें की विकृति और सामने वाले को चोट पहुँचा करलहुलुहान करना मकसद बन गया । प्रारम्भ में सद्भावना के साथ राड़ खेलना हिम्मत एवं बहादुरी तथा संयमका पैमाना माना जाता था लेकिन आज राड़ का खेल प्रतिशोध एवं दिखावे का मैदान बन गया है। अब यहांराड़ खेलने वालों की संख्या सैकड़ों में हो गयी है तो दर्शकों की संख्या हजारों में होती जा रहीं है। राज्य सरकारजिला प्रशासन और आम जनों से प्रबुद्धजन तक राड़ के स्वरूप में बदलाव और खून ख़राबे की इस परंपरा कोबंद करना चाहता है लेकिन प्रशासन, पुलिस, न्यायालय एवं जनप्रतिनिधियों के हस्तक्षेप प्रयासों और हर वर्षकी जाने वाली अपील के बाद भी यह परम्परा बंद नही हों पा रही है । परंपरा के नाम पर भीलूड़ा गाँव में हर वर्षहोली पर पत्थर बरसा खूनी होली खेलने का यह क्रम अनवरत जारी है।
दूसरी ओर वागड़ अंचल में होली के अवसर पर पन्द्रह दिनों तक आदिवासियों की अल्हड़ मस्ती का अनोखाअन्दाज़ और आकर्षक गेर नृत्य की धूम देखने मिलती है और आम रास्तों से गुजरना भी दूभर हों जाता हैं।रोज़गार के लिए निकटवर्ती गुजरात मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में काम करने वाले हज़ारों लोगपन्द्रह दिनों तक अपने-अपने काम से अवकाश लेकर और अपने गाँव आकर होली की मद और मस्ती केआलम में डूब जाते है। होली पर गीत संगीत नृत्य और फाग में सराबोर वागड़ में लोकानुरंजन की कई औरअनूठी परंपराएं सभी को आनंद के सागर में हिलोरें लेती दिखाई देती हैं।
इस आदिवासी क्षेत्र में सदियों से चली आ रहीं इस शौर्ष प्रदर्शन की परंपरा में बदलते युग के साथ कई विकारभी आ गये है लेकिन राड़ के खेल ने आज भी अपना वजुद बरकरार रखा है। प्रचलित लोक मान्यताओं केअनुसार राड़ खेलना यहाँ शौर्य प्रदर्शन के साथ ही हिम्मत एवं बहादुरी का पैमाना और राड़ के दौरान लगनेवाली पत्थरों की चोट से बहते खून को अगले वर्ष का शुभ संकेत माना जाता है। इस अनूठे और अद्भुत प्रदर्शनको देखने दूर-दराज से हजारों लोग आते है और कई विदेशी पर्यटक भी आदिम संस्कृति की झलक पाने औरइसका दीदार करने भीलूड़ा पहुँचते हैं।
क्यों खेली जाती है राड़ ?
यहाँ प्रचलित जन श्रुति और लोक मान्यता के अनुसार मेवाड़ के राणा सांगा के साथ मुग़ल बादशाह बाबर केसाथ खंडवा के युद्ध के मैदान में डूंगरपुर के महारावल उदयसिंह द्वितीय के शहीद होने के बाद उनकी रियासतदो भागों डूंगरपुर और बांसवाड़ा में बंट गई और उनके बड़े पुत्र पृथ्वी सिंह डूंगरपुर और छोटे पुत्र जगमाल सिंहबाँसवाड़ा नरेश बनें। बताते है कि एक बार धुलेंडी के दिन राजा जगमालसिंह का काफिला भीलूड़ा गांव सेनिकल रहा था। उस समय यहां के एक पाटीदार जिसके पालतू कुत्ते का नाम भी जगमाल था को राजा ने जबउसे जगमाल नाम से पुकारते देखा और सुना तो बांसवाड़ा नरेश क्रोधित हो गए और उन्होंने अपने सैनिकों कोपाटीदार को मार देने का आदेश दिया । सैनिकों के डर से जब पाटीदार भाग रहा था तो उसकी इस मैदान मेंउसकी मौत हो गई और उसी मैदान पर पाटीदार की पत्नी अपने पति की चिता पर जल कर सती हुई । उसनेसती होने से पहले राजा और उसके सैनिकों को श्राप दिया कि आज के दिन हर वर्ष इस मैदान पर खून गिरानाहोगा और यदि ऐसा नहीं होने पर गांव में बड़ा अनिष्ट होगा। सती के अभिशाप और किसी अनिष्ट से बचने केलिए मैदान में खून गिराने के लिए पत्थरों की राड़ खेलने की यह परंपरा शुरु हुई थी जो सैकड़ो वर्षों के बाद आज भी बदस्तूर जारी है।
किंवदंतियों के अनुसार सती के वचनों का निर्वहन करने बरसों पहले धुलेंडी के दिन पत्थरों की होली और राड़ खेलने की यह परम्परा शौर्य एवं शक्ति का प्रदर्शन करने के एक आदर्श स्वरूप में लोकारंजन के लिए खेलीजाती थी। राड़ खलने वाले दल सामने वाले दल को सावचेत कर हुए अपने आपको बचाने की हिदायत देतेहुए हाथ से ही पत्थर फेकते की रस्म अदायगी करते थे किसी को चौट पहुँचाना अथवा घायल करना उद्देश्यनहीं होता था लेकिन कालान्तर में गोफन से पत्थर फेकनें की विकृति और सामने वाले को चोट पहुँचा करलहुलुहान करना मकसद बन गया । प्रारम्भ में सद्भावना के साथ राड़ खेलना हिम्मत एवं बहादुरी तथा संयमका पैमाना माना जाता था लेकिन आज राड़ का खेल प्रतिशोध एवं दिखावे का मैदान बन गया है। अब यहांराड़ खेलने वालों की संख्या सैकड़ों में हो गयी है तो दर्शकों की संख्या हजारों में होती जा रहीं है। राज्य सरकारजिला प्रशासन और आम जनों से प्रबुद्धजन तक राड़ के स्वरूप में बदलाव और खून ख़राबे की इस परंपरा कोबंद करना चाहता है लेकिन प्रशासन, पुलिस, न्यायालय एवं जनप्रतिनिधियों के हस्तक्षेप प्रयासों और हर वर्षकी जाने वाली अपील के बाद भी यह परम्परा बंद नही हों पा रही है । परंपरा के नाम पर भीलूड़ा गाँव में हर वर्षहोली पर पत्थर बरसा खूनी होली खेलने का यह क्रम अनवरत जारी है।
दूसरी ओर वागड़ अंचल में होली के अवसर पर पन्द्रह दिनों तक आदिवासियों की अल्हड़ मस्ती का अनोखाअन्दाज़ और आकर्षक गेर नृत्य की धूम देखने मिलती है और आम रास्तों से गुजरना भी दूभर हों जाता हैं।रोज़गार के लिए निकटवर्ती गुजरात मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में काम करने वाले हज़ारों लोगपन्द्रह दिनों तक अपने-अपने काम से अवकाश लेकर और अपने गाँव आकर होली की मद और मस्ती केआलम में डूब जाते है। होली पर गीत संगीत नृत्य और फाग में सराबोर वागड़ में लोकानुरंजन की कई औरअनूठी परंपराएं सभी को आनंद के सागर में हिलोरें लेती दिखाई देती हैं।
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