Two life sentences for one murder conviction: The limits of justice or its violation?-m.khaskhabar.com
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हत्या के एक दोष पर दो उम्रकैद : न्याय की सीमा या उसका उल्लंघन?

khaskhabar.com: सोमवार, 16 जून 2025 12:42 PM (IST)
हत्या के एक दोष पर दो उम्रकैद : न्याय की सीमा या उसका उल्लंघन?
भारतीय न्याय व्यवस्था के दरवाज़े पर एक संवेदनशील और जटिल प्रश्न खड़ा है—क्या किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार उम्रकैद की सज़ा दी जा सकती है? यह प्रश्न अब सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है और देशभर में न्याय, संविधान और दंड व्यवस्था को लेकर नई बहस का विषय बन गया है।

हरियाणा के ठा सुकेश नामक व्यक्ति को अपनी पत्नी की हत्या के मामले में दो अलग-अलग धाराओं में उम्रकैद की सज़ा दी गई थी। दोनों सजाएँ लगातार चलने के आदेश के साथ दी गईं, यानी पहले एक उम्रकैद पूरी होगी, फिर दूसरी शुरू होगी। यह वही स्थिति है जैसे किसी व्यक्ति को दो जीवनकाल की सज़ा दे दी गई हो। भारत का संविधान यह स्पष्ट कहता है कि किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार मुकदमा चलाकर सज़ा नहीं दी जा सकती।
अनुच्छेद 20(2) में उल्लेखित 'डबल जियोपर्डी' का सिद्धांत इसी विचार पर आधारित है कि न्यायिक प्रक्रिया केवल दंड देने के लिए नहीं, बल्कि न्याय को संतुलन और विवेक के साथ लागू करने के लिए है। लेकिन यदि किसी एक घटना से जुड़े दो अलग-अलग अपराधों के तहत मुकदमा चले और दोनों में दोष सिद्ध हो, तो क्या दो बार सज़ा दी जा सकती है? यही इस पूरे मामले का केंद्रीय प्रश्न है। ठा सुकेश पर आरोप है कि उसने अपनी पत्नी की हत्या की।
इस घटना से उत्पन्न दो मुकदमे—एक भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (हत्या) और दूसरा संभवतः धारा 498A (घरेलू हिंसा) या 304B (दहेज मृत्यु)—दायर किए गए। दोनों मामलों में सजा उम्रकैद की हुई और उन्हें लगातार चलाने का निर्देश दिया गया। यहाँ कानूनी पेचीदगी यह है कि अगर हत्या और घरेलू हिंसा की घटनाएँ एक ही समय और परिस्थिति की उपज हैं, तो क्या उन्हें दो अलग-अलग अपराध माना जा सकता है?
सुप्रीम कोर्ट के सामने यह प्रश्न केवल तकनीकी नहीं, बल्कि नैतिक और संवैधानिक रूप से भी महत्वपूर्ण है। न्याय का उद्देश्य किसी को दोहरा दंड देना नहीं है, बल्कि उस अपराध की प्रकृति और उसकी सामाजिक क्षति के अनुरूप न्यायसंगत सज़ा देना है। लगातार दो उम्रकैद देना ऐसा प्रतीत होता है जैसे किसी व्यक्ति को उसकी आयु से अधिक सजा दी जा रही हो—एक प्रकार का अतिन्याय, जो अन्याय में बदल सकता है। पूर्व में भी सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मामलों पर विचार किया है।
मुथुरामलिंगम बनाम तमिलनाडु राज्य (2016) के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा था कि एक से अधिक उम्रकैद की सजाएँ साथ-साथ चलनी चाहिए, जब तक कि किसी विशेष परिस्थिति में अलग-अलग चलाना अनिवार्य न हो। वहीं, स्वामी श्रद्धानंद मामले में न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया था कि यदि फाँसी नहीं दी जाती, तो सज़ा की अवधि को बढ़ाया जा सकता है, लेकिन यह फैसला भी न्यायिक विवेक और अपवाद के आधार पर लिया गया था, न कि नियम के तहत। यदि ठा सुकेश को एक ही अपराध में दो बार उम्रकैद दी जाती है, तो यह एक खतरनाक परंपरा की नींव हो सकती है।
यह न्यायिक प्रणाली के उस मूल विचार से भटकाव होगा, जहाँ दंड प्रणाली सुधारात्मक होनी चाहिए, न कि दमनकारी। साथ ही, यह भी देखना होगा कि क्या ऐसे फैसले संविधान के मूल ढांचे और व्यक्तिगत अधिकारों के अनुरूप हैं या नहीं। भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र में जहाँ जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को सर्वोच्च स्थान दिया गया है, वहाँ इस प्रकार की सज़ाएँ मानवीय दृष्टिकोण से भी असहज प्रतीत होती हैं। कोई भी सज़ा, चाहे वह कितनी भी सख्त क्यों न हो, तब तक न्यायसंगत नहीं कही जा सकती जब तक उसमें विवेक, मानवीयता और संविधान की भावना न हो।
इस निर्णय का असर केवल एक व्यक्ति पर नहीं पड़ेगा, बल्कि यह भारतीय दंड संहिता, आपराधिक प्रक्रिया संहिता और संविधान की व्याख्या को भी नए सिरे से परिभाषित करेगा। यदि सुप्रीम कोर्ट इस फैसले को वैध ठहराता है, तो भविष्य में अनेक मामलों में दोहरी उम्रकैद देने की संभावनाएँ खुल सकती हैं। यदि नहीं, तो यह न्यायिक विवेक का एक ऐतिहासिक उदाहरण बनेगा, जो यह स्थापित करेगा कि सज़ा का उद्देश्य दमन नहीं, दिशा देना है। हर न्यायिक निर्णय एक उदाहरण होता है।
यह मामला हमारे देश की न्याय प्रणाली के उस चौराहे पर खड़ा है, जहाँ से आगे का रास्ता तय करेगा कि हम किस प्रकार के समाज की ओर बढ़ना चाहते हैं—एक ऐसा समाज जहाँ न्याय समानुपातिक हो, या एक ऐसा जहाँ सज़ा के नाम पर अतिशयता को न्याय कहा जाए। यह केवल ठा सुकेश या उसकी पत्नी का मामला नहीं है।
यह उस विचारधारा का मामला है, जो यह तय करती है कि अपराध के लिए सज़ा कैसी होनी चाहिएदुहराव में लिपटी हुई, या विवेक और मानवता से सजी हुई? अब यह सुप्रीम कोर्ट के विवेक और संविधान की व्याख्या पर निर्भर करेगा कि वह इस अत्यंत जटिल सवाल का उत्तर कैसे देता है। न्याय केवल कानून का अनुपालन नहीं होता, वह समाज की चेतना का प्रतिबिंब भी होना चाहिए।

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