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त्योहारों का सेल्फ़ी ड्रामा: त्योहार अब दिल से नहीं, डिस्प्ले से मनाए जाते हैं

होली भी अब रंगों का नहीं, रंगीन दिखावे का खेल है। पहले जो चेहरे रंगों में डूबे होते थे, अब वे फ़िल्टर में धुल चुके हैं। लोग अब एक-दूसरे को रंग लगाने से ज़्यादा डरते हैं कि “कपड़े खराब हो जाएँगे, फोटो में अच्छा नहीं लगूँगा।” “सेल्फ़ी विद गुलाल” में रंग तो हैं, पर अपनापन नहीं। यह होली अब मन की नहीं, मेकअप की होली बन गई है।
ईद, क्रिसमस, नवरात्र — हर धर्म का उत्सव अब एक ही रंग में रंग गया है — डिजिटल दिखावे का रंग। मस्जिद या गिरजाघर के सामने मुस्कुराती तस्वीरें, थाली में सजे पकवानों के फोटो, और शीर्षक — “प्यार और शांति बाँट रहे हैं।” पर क्या सचमुच प्यार और शांति फैल रही है, या बस दिखावा? त्योहार अब इंसान को जोड़ने की बजाय, तुलना और प्रतिस्पर्धा का कारण बनते जा रहे हैं। “उसकी लाइटिंग ज़्यादा सुंदर”, “उसका मंडप बड़ा”, “उसके पास महँगी सजावट”— यह सब उस आत्मीयता को निगल गया है जो कभी परिवारों की पहचान थी।
यह सेल्फ़ी नाटक इतना गहरा हो चुका है कि अब भक्ति का भी अभिनय होता है। मंदिर में जाते ही लोग पहले फोन निकालते हैं, फिर हाथ जोड़ते हैं। आरती लाइव होती है, पर मन ऑफ़लाइन। दान सोशल मीडिया पर दिखाया जाता है, ताकि दूसरों को पता चले कि ‘हम भी नेक हैं’। भक्ति निजी नहीं रही, सार्वजनिक प्रदर्शन बन गई है।
आस्था अब आत्मा से नहीं, प्रसारण से चलती है। मनोविज्ञान की दृष्टि से देखें तो यह “डिजिटल आस्था” एक गहरी बेचैनी का परिणाम है। इंसान अब अपने हर अनुभव का प्रमाण सोशल मीडिया से चाहता है। उसे लगता है कि अगर कोई चीज़ कैमरे में नहीं आई तो वह हुई ही नहीं। यही कारण है कि अब त्योहारों में मुस्कान असली नहीं, अभ्यास की हुई होती है। बच्चे तक कैमरे के सामने “हैप्पी दिवाली” बोलना सीख चुके हैं। रिश्तों की गर्माहट अब कैमरे की ठंड में जम गई है।
त्योहारों का असली अर्थ था — रुकना, साँस लेना, जुड़ना। अब अर्थ बदल गया है — सजना, पोस्ट करना, भूल जाना। लोगों को यह भी याद नहीं रहता कि त्योहार का मूल कारण क्या था — बस इतना याद रहता है कि किस दिन क्या पोस्ट करना है। यह ‘सेल्फ़ी संस्कृति’ धीरे-धीरे उस आध्यात्मिक गहराई को खा रही है जो भारतीय समाज की पहचान थी। अब त्यौहार आत्मा का नहीं, ‘छवि’ का दर्पण बन गए हैं।
बाज़ार ने भी इस प्रवृत्ति को भुनाने में देर नहीं लगाई। हर त्यौहार से पहले ‘सेल्फ़ी पृष्ठभूमि’, ‘फोटो मंच’, ‘डिजिटल सजावट’ और ‘त्योहार संग्रह’ की बाढ़ आ जाती है। पूजा की थाली से ज़्यादा महत्त्व अब पैकेजिंग का हो गया है। त्योहार अब आध्यात्मिक नहीं, ब्रांडेड अवसर बन चुके हैं। दीपावली अब “ऑनलाइन खरीदारी पर्व” है, नवरात्र “गरबा नाइट्स प्रायोजित कार्यक्रम” है, और होली “कलर ब्लास्ट आयोजन” बन चुकी है। जहाँ पहले त्योहार आत्मा को शुद्ध करते थे, अब वह जेब को खाली कर देते हैं।
सोशल मीडिया पर दिखावे की इस होड़ ने समाज में एक अजीब-सी भावनात्मक दूरी पैदा कर दी है। लोगों को लगता है कि उन्होंने दूसरों की फोटो देखकर उनसे जुड़ाव बना लिया — जबकि असल में वह जुड़ाव एक भ्रम है। त्योहार जो कभी सबको साथ लाते थे, अब लोगों को अकेला कर रहे हैं। हर कोई अपने फोन में बंद है, दूसरे की मौजूदगी सिर्फ स्क्रीन पर है। “परिवार की फोटो” तो पूरी है, लेकिन परिवार बिखरा हुआ है। यह सब लिखते हुए एक प्रश्न चुभता है — क्या हम ईश्वर से जुड़ रहे हैं या नेटवर्क सिग्नल से? क्या हमें खुशी मिल रही है या बस ‘प्रतिक्रिया’? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे त्योहार अब आत्मा से नहीं, कैमरे की चमक से रोशन हो रहे हैं?
त्योहारों का असली अर्थ तब लौटेगा जब हम कैमरा नीचे रखकर, किसी के चेहरे पर सच्ची मुस्कान देखेंगे। जब दीया सिर्फ़ फोटो के लिए नहीं, अंधेरे के लिए जलाया जाएगा। जब करवा चौथ पर फोटो नहीं, साथ बैठकर एक-दूसरे की आँखों में सुकून ढूँढा जाएगा। जब होली पर रंग लगाते वक्त डर नहीं, अपनापन होगा। त्योहार तब लौटेंगे, जब हम दिखाना बंद करेंगे — और महसूस करना शुरू करेंगे। त्योहारों का यह सेल्फ़ी ड्रामा तभी खत्म होगा जब इंसान अपने अंदर झाँककर यह कह सके —“मुझे किसी की लाइक नहीं चाहिए, मुझे बस अपने अपनों की सच्ची मुस्कान चाहिए।”
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