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राजस्थान साहित्य उत्सव : कला, संगीत, साहित्य, सामाजिक व राष्ट्रीय सरोकारों समेत सभी मुद्दों पर हुआ मंथन

khaskhabar.com : सोमवार, 27 मार्च 2023 12:32 PM (IST)
राजस्थान साहित्य उत्सव : कला, संगीत, साहित्य, सामाजिक व राष्ट्रीय सरोकारों समेत सभी मुद्दों पर हुआ मंथन
-कला संवाद तथा 7 विभिन्न सत्रों में विषय विशेषज्ञों एवं मनीषी चिन्तकों ने की गहन चर्चा

जोधपुर।
कला एवं संस्कृति विभाग की ओर से आयोजित तीन दिवसीय राजस्थान साहित्य उत्सव (साहित्य कुंभ-2023) के दूसरे दिन रविवार को उम्मेद उद्यान के जनाना बाग़ में विभिन्न सभागारों में कला, संगीत, साहित्य, भाषा, सामाजिक एवं राष्ट्रीय सरोकारों से लेकर साहित्य जगत से जुड़े तमाम आयामों पर कला संवाद और विभिन्न विषयों पर 7 संवाद सत्र हुए। इनमें विषय विशेषज्ञों व मनीषी साहित्य चिन्तकों ने गहन मंथन किया और सारभूत निष्कर्ष सामने रखे। रविवार को दिन भर इन संवाद सत्रों में चर्चाओं और मंथन का दौर बना रहा।

इन सत्रों में सम सामयिक समस्याओं और परिवर्तन के आयामों का जिक्र होने के साथ ही बेहतर परिवेश और उन्नत समाज तथा राष्ट्र निर्माण में कलमकारों की भूमिका पर भी चर्चा की गई और अपनी अभिव्यक्ति एवं बहुआयामी रचनाकर्म के माध्यम से सामाजिक नवनिर्माण में सशक्त एवं समर्पित भागीदारी निभाने का संकल्प व्यक्त किया गया।



*संवाद सत्र-प्रथम*

*’गांधी-नेहरू की सार्वकालिकता आज भी है प्रासंगिक’*




साहित्य उत्सव का दूसरा दिन साहित्यिक संवाद व लोक कला के नाम रहा। मीराबाई सभागार में दिन की शुरुआत गांधी-नेहरू दर्शन की सार्वकालिकता विषय पर चर्चा के साथ हुई। इस संवाद सत्र में मौजूदा समय में गांधी व नेहरू के दर्शन के महत्त्व पर विचार रखे गए। फ़ारुख़ आफरीदी ने मंच संचालन की जिम्मेदारी निभाई। उन्होंने कहा कि नेहरू गांधी इस दुनिया में हमेशा ही प्रासंगिक रहेंगे, इस बात में कोई संदेह नहीं है। खास तौर पर आज की युवा पीढ़ी को इस बात को जानना जरूरी है कि गांधी और नेहरू की धरोहर कितना महत्व रखती है। साहित्य में भी इसकी सार्वकालिकता सतत् बनी हुई है। इस सत्र में बनारस से आए प्रो. सतीश राय व जस्टिस गोविन्द माथुर ने भी अपने विचार रखे।



*’झूठ फॉरवर्ड करना भी पाप है’*

बनारस से आए प्रो. सतीश राय ने इंटरनेट के इस युग में वाट्सऐप के जरिए सुनियोजित झूठ परोसा जा रहा है, हमारी गलती है कि हम उसे क्रॉस चेक नहीं करते। गांधी जी कहते थे कि झूठ बोलना पाप है, आज के समय में इसके साथ यह भी जोड़ा जा सकता है कि झूठ को बिना सोचे समझे फॉरवर्ड करना भी पाप है। महात्मा गांधी अफ्रीका से लौटने के बाद जब बनारस आए थे। उस समय उन्होंने जो भाषण दिया वो सभी को चौंकाने वाला निर्भीक भाषण था, वहां गांधी का नया रूप देखने को मिला था। गांधीजी को सुभाषचंद्र बोस ने राष्ट्रपिता कहा था, वे हमारी एकता को नया स्वरूप प्रदान करने वाले थे। नेहरू ने गांधी के दृष्टिकोण को आगे बढ़ाया। नेहरू ने एक गांव में लोगों को बताया था कि जब हम भारत माता की जय बोलते हैं तब हम हर हिंदुस्तानी की जय बोलते हैं।

इस सत्र में जस्टिस गोविंद माथुर ने कहा कि महात्मा गांधी ने ’वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाने रे’, ’ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ के जरिए सद्भाव का संदेश दिया। गांधी के दर्शन में सत्य, अहिंसा, सर्वोदय की बात है। गांधी की दृष्टि को पं. जवाहर लाल नेहरू ने विस्तार दिया, दृष्टिमान करवाया। भारत और पाकिस्तान साथ में ही अलग-अलग हुए, लेकिन भारत का संविधान समृद्ध है, क्योंकि भारत के पास गांधी की दृष्टि थी।



*संवाद सत्र-द्वितीय*



*’साहित्य और समाज के सरोकार’ पर संवाद*




इस सत्र में विद्वान् संभागियों ने साहित्य और सामाजिक सरोकार के मजबूत संबंधों पर प्रकाश डाला। ’साहित्य प्राथमिक रहेगा तभी उसमें समाज की अभिव्यक्ति होगी। साहित्य से ही समाज में बदलाव आता है। साहित्य समाज की संवेदना को व्यक्त करता है और यह समाज की समीक्षा भी है।’ राजस्थान साहित्य उत्सव के दूसरे दिन रविवार को विजयदान देथा सभागार में ’साहित्य और समाज के सरोकार’ विषय पर हुए संवाद सत्र में इन्हीं विचारों के साथ सामाजिक सरोकार में साहित्य की भूमिका पर प्रकाश ड़ाला गया। नन्द भारद्वाज, जयपुर की अध्यक्षता में हुए सत्र का संचालन बीकानेर के शंकर सिंह राजपुरोहित ने किया। सत्र में बीकानेर के मालचन्द तिवाड़ी और मधु आचार्य, जोधपुर के मिठेश निर्मोही एवं प्रो. जहूर खां मेहर जैसे वरिष्ठ साहित्यकारों ने मंच साझा किया।

मालचन्द तिवाड़ी ने कहा कि साहित्य में सामाजिक सरोकार रहेगा ही रहेगा। उन्होंने कहा कि समाज लेखक के चित्त की अनुभूति का हिस्सा होना चाहिए। प्रो. जहूर खां मेहर के वक्तव्य में राजस्थानी भाषा का लालित्य झलका। उन्होंने कहा कि राजस्थान के सामाजिक ढांचे में अद्वितीय प्रेम देखने को मिलता है, लेखकों को चाहिए कि जितना प्रदेश की कुरीतियों को लेखन का आधार बनाया जाता है उससे अधिक यहां के समुदायों में व्याप्त प्रेम को दर्शाना चाहिए।

मीठेश निर्मोही ने कहा कि साहित्य की जड़ें आदिकाल से हैं, यह संस्कृति का रक्षक है। उन्होंने यह भी कहा कि साहित्य और समाज को अलग करेंगे तो दोनों ही अपने वजूद को खो देंगे। वहीं मधु आचार्य ने कहा कि पीठ पर जब तक परम्पराएं नहीं है तब तक वर्तमान का साहित्य सार्थक नहीं है। आमजन को अपनी पीड़ा दिखती है, साहित्यकार दूसरे की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझते हुए समाज की पीड़ा को जाहिर करती है, ये संवेदना बहुत जरूरी है।

सत्राध्यक्ष नन्द भारद्वाज ने कहा कि समाज के अनुभवों को खुद में समाहित कर लिखने पर एक बड़े लेखक और कालजयी रचना का जन्म होता है। उन्होंने कहा कि जब तक साहित्य समाज से जुड़ेगा नहीं उसकी सार्थकता पूरी नहीं होगी।



*संवाद सत्र-तृतीय*



*महिला लेखन कल आज और कल*




’साहित्य में महिला लेखन है एक बड़ा विषय’ इसी पर केन्द्रित रहा तीसरा सत्र। राजस्थान साहित्य उत्सव के दूसरे दिन रविवार को कन्हैयालाल सेठिया सभागार में ’महिला लेखन कल, आज और कल’ विषय पर आयोजित संवाद सत्र के दौरान साहित्य में नारी के योगदान पर चर्चा हुई। सत्र की अध्यक्षता रीमा हूजा ने की। संचालन डॉ. मीनाक्षी बोराणा ने किया। सत्र में डॉ. शारदा कृष्ण, डॉ. ज़ेबा रशीद, रीना मेनारिया और डॉ. रेणुका व्यास ने अपने विचार रखें।

*“लिख दिया खुद को कलम में कैद करके“*

डॉ. शारदा कृष्ण ने कहा कि महिला लेखन एक बहुत बड़ा विषय है और इसे संक्षिप्त में बयां नहीं किया जा सकता। उन्होंने मीरा बाई, इस्मत चुगता, नूतन गुप्ता, डॉ. जयश्री शर्मा, तस्लीम खान, सुमन बिस्सा और कईं महिला लेखिकाओं का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि पहले कैसी स्थिति थी और अब महिलाएं आत्मनिर्भर होती जा रही हैं। महिलाएं बहुत बाधाएं पार करके यहां तक पहुंची हैं।

ज़ेबा रशीद ने कहा कि महिला लेखन कल भी महत्वपूर्ण था और आज भी है। महिला लेखिकाओं ने तल में जाकर छानबीन की है, सरल और सटीक लेखन किया है। आज नारी लेखन महिला स्वतंत्रता की पहचान है। राजस्थानी लेखन को किसी और लेखन से कम नहीं आंका जा सकता है। महिला लेखन को एक छोटे से खांचे में कैद नहीं किया जा सकता।



*संवाद सत्र-चतुर्थ*



*वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मीडिया का बदलता स्वरूप*

*’मीडिया के सामने हैं कई चुनौतियां, साथ में है सच परोसने की जिम्मेदारी भी’*




मीराबाई सभागार में रविवार को ’वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मीडिया का बदलता स्वरूप’ विषय पर संवाद सत्र आयोजित किया गया। सत्र की अध्यक्षता ओम थानवी ने की। सत्र में पत्रकारिता जगत से जुड़े जाने माने नाम प्रो. सुधि राजीव, नारायण बारेठ, अमित वाजपेयी, मनोज वार्ष्णेय, डॉ. यश गोयल ने अपने विचार रखे।

मनोज वार्ष्णेय ने कहा कि दुनिया बदल रही है, ऐसे में मीडिया भी बदल रहा है। परिवर्तन की यह प्रक्रिया सतत् चल रही है, इन सबके बीच मीडिया का यह दायित्व है कि यदि कुछ गलत हो रहा है तो उसके खिलाफ आवाज उठाए।

अमित वाजपेयी ने कहा कि सोशल मीडिया के जमाने में मीडिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि जानकारी से आगे की खबर दें, जानकारी तो कुछ ही पलों में सभी को वॉट्सऐप के जरिए मिल जाती है। ऐसे में मीडिया को उसके प्रभाव और आगे होने वाले बदलावों की जानकारी देनी होती है।

नारायण बारेठ ने पत्रकारिता में वैचारिक मूल्यों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि तेजी से बदल रही पत्रकारिता में प्रिंट मीडिया के अस्तित्व पर खतरा आ गया है। एआई जैसी तकनीकें भी आ गई हैं, जो बुरा असर डाल सकती हैं। अखबारों में दलित, पीड़ित की जगह फैशन और स्टाइल ने ले ली है। सवाल पूछने का परम्परा खत्म हो रही है, यदि सवाल नहीं होते तो गीता और गौतम बुद्ध नहीं होते। एकलव्य सवाल पूछते तो अंगूठा नहीं कटवाना पड़ता।

प्रो. सुधि राजीव ने अमेरिका में फाइजर सीओई से पूछे गए एक पत्रकार के सवाल का जिक्र किया और पत्रकारिता में सच्चाई को सामने लाने की अपील की। सत्र के अध्यक्ष ओम थानवी ने कहा कि अखबार का काम केवल जानकारी देना नहीं है, एक समझ- एक विवेक को साझा करना होता है। समाचार पत्र में सम्पादकीय पृष्ठ अहम होता है, अब अंग्रेजी अखबार के लेख अनुवाद के साथ हिन्दी अखबारों में छपते हैं। अहम बात यह है कि सवाल पूछे जाने चाहिए, यह कमी अब देखने को मिल रही है।



*संवाद सत्र-पंचम*



*’समकालीन लेखन के अभिनव प्रयोग’ विषय पर संवाद*

*भाषागत प्रयोग जरूरी पर पाठक की चेतना पर न बने बोझ*




राजस्थान साहित्य उत्सव के प्रांगण में रविवार को विजयदान देथा सभागार में ’समकालीन लेखन के अभिनव प्रयोग’ विषय पर संवाद हुआ। डॉ. दुर्गा प्रसाद अग्रवाल (जयपुर) के संचालन में हुए सत्र में डॉ. बृजरत्न जोशी (बीकानेर), डॉ. पल्लव (नई दिल्ली) ने अपने विचार रखे। डॉ. दुर्गा प्रसाद ने कहा कि भाषा का इतिहास बड़ा पुराना है, अगर गहनता के साथ विश्लेषण किया जाए तो देखने में आता है कि तब से लेकर आज तक हर भाषा में कई तरह के बदलाव हुए हैं और भाषा का बदलाव एक तरह का प्रयोग ही है।

डॉ. बृजरत्न जोशी ने कहा कि जिस तरह वैज्ञानिकों द्वारा किया गया हर प्रयोग सफल नहीं होता है उसी तरह भाषा में किए गया हर बदलाव सहजता से स्वीकार किया जाए यह जरूरी नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि भाषागत प्रयोग भाषा को चमकाता है। उन्होंने विशेष जोर देते हुए कहा कि परंपरा से जुड़कर ही कोई भी भाषागत प्रयोग सफल होता है, ध्यान रहे कि यह प्रयोग पाठक की चेतना पर बोझ न बने। वहीं डॉ. पल्लव ने भूमंडलीकरण के बाद भाषा में आए बदलावों का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि यह दौर कथेतर का है, ’कथेतर वह रचना है जो कथा तो नहीं है लेकिन कथा जैसा स्वाद देती है।

*संवाद सत्र - षष्ठम्*

*साहित्यिक और सांस्कृतिक चुनौतियां*




*’संस्कृति कभी जड़ नहीं हो सकती’*



कन्हैया लाल सेठिया सभागार में रविवार को ’साहित्यिक और सांस्कृतिक चुनौतियां’ विषय पर संवाद सत्र आयोजित किया गया। सत्र की अध्यक्षता जानेकृमाने विद्वान वेद व्यास ने की। संचालन डॉ. गजेसिंह राजपुरोहित ने किया। राजस्थान साहित्य अकादमी के अध्यक्ष डॉ. दुलाराम सहारण ने न केवल विषय पर प्रकाश डाला बल्कि सत्र में मौजूद श्रोताओं के सवालों का भी बखूबी जवाब दिया।

सत्र में नंद किशोर आचार्य ने कहा कि अगर आपकी कविता में संवेदना और विवेक है तो यह लोगों तक पहुंच जाएगी। संस्कृति एक सतत प्रक्रिया है। संस्कृति कभी भी जड़ नहीं हो सकती है, संस्कृति का तात्पर्य होता है मानव चेतना को निरंतर संस्कारित करते रहना।

केसी मालू ने संस्कृति के नाम पर हो रहे व्यवसाय के बारे में कहा कि साहित्य व संस्कृति मूल रूप से एक नहीं है। हजारों सालों से जो लिखा गया है वही हमारी संस्कृति है, जो उसमें अच्छा होता है, वही संस्कृति के रूप में अपना ली जाती है। यदि हमें संस्कृति से बंधना है तो उसके लिए हमें अपनी परम्पराओं से जुड़े रहना जरूरी है। लोक संगीत बनाने वालों को लोकसंगीत का ज्ञान ही नहीं है, उन्हें पुराने लोग व लोक से जुड़ना होगा। यदि इस प्रकार चलता रहा तो आने वाली पीढ़ी हमारी संस्कृति को कैसे समझेगी।



*संवाद सत्र-सप्तम्*
*साहित्य में सर्वधर्म समभाव*

*’सबसे खूबसूरत रचना है मानव, मानवता ही है सबसे बढ़कर’*



विजयदान देथा सभागार में आयोजित सत्र में रविवार को ’साहित्य में सर्वधर्म समभाव’ की आवश्यकता पर जोर दिया गया। सत्र के संचालक शास्त्री कोसलेन्द्र दास ने बताया कि विश्व में वेदों से प्राचीन कोई साहित्य नहीं है, कोई भी साहित्य पुरातन होने में वेदों की बराबरी नहीं कर सकता है। उन्होंने कई अनूठी रचनाएं सुनाते हुए संस्कृत, उर्दू, राजस्थानी और फारसी के अद्वितीय मेलजोल को प्रदर्शित किया।

सत्र में भरत ओला ने कहा कि लोक हमेशा ही सर्वधर्म समभाव की बात करता है। मेरे लिए प्रेम, सौहार्द, ईमानदारी, भाईचारा जैसे मूल्य ही धर्म है। आज के समय में सर्वधर्म समभाव की बात करना बहुत जरूरी है।

डॉ. सरोज कौशल ने संस्कृत साहित्य में सर्वधर्म समभाव की बात का जिक्र किया। उन्होंने मौर्य चंद्रगुप्त महाकाव्य की रचना सुनाई। साथ ही बताया कि संस्कृत में गालिबकाव्यम् जैसे साहित्य लिखकर उर्दू साहित्य को अपनाया गया।

डॉ. राजेश कुमार व्यास ने कहा कि शब्दों के प्रति हम बड़े निर्मम है। सम्प्रदाय जैसे शब्दों की व्याख्या बहुत ही गलत तरीके से कर दी जाती है। साहित्य में मैत्री भाव ही समभाव होता है, लेकिन इन सब का मूल धर्म समभाव होता है। कहा जाता है कि अकबर ने दीन ए इलाही की बात की थी, मुझे लगता है कि उनसे एक हजार साल पहले सम्राट अशोक सर्वधर्म समभाव की बात कर चुके थे।

डॉ. सरोज कोचर ने कहा कि आज के समय में हमारे समृद्ध इतिहास की ओर देखना होगा। हमें अपनी मौलिकता को बनाए रखते हुए सर्वधर्म समभाव को अपनाना चाहिए। धैर्य, क्षमा, विद्या, सत्य ये सभी धर्म से जुड़े हैं। मानव के लिए मानवता ही धर्म है।

सत्राध्यक्ष डॉ. हुसैन रजा खाँ ने अमीर खुसरो, गालिब जैसे कई शायरों का जिक्र किया। उन्होंने बताया कि गालिब ने कहा था कि मैं बनारस छोड़कर नहीं जा पाउंगा, लगता है कि पूरी दुनिया की खूबसूरती यहां सिमट आई है। उन्होंने कहा कि कुरान में कहा गया है कि खुदा की सबसे खूबसूरत रचना मानव है, ऐसे में मानवता ही सबसे बढ़कर है।



*कला संवाद सत्र*



*’राजस्थान का समसामयिक परिदृश्य एवं संभावनाएं’ पर संवाद*

*’मुगल चित्रकला शैली में भी दिखती है राजस्थानी झलक’*




राजस्थान साहित्य उत्सव के दूसरे दिन रविवार को ’कला संवाद’ नामक सत्र में ’राजस्थान का समसामयिक परिदृश्य एवं संभावनाएं’ विषय पर राजेश कुमार व्यास,जयराम पोड़वाल,रीटा प्रताप,प्रो.चिन्मय मेहता ने संवाद किया।

डॉ. राजेश कुमार व्यास ने कहा कि मुगल काल की चित्रकला शैली का सूक्ष्म विश्लेषण किया जाए तो इसमें राजस्थानी चित्रकला शैली की झलक दिखायी देगी। उन्होंने कहा कि राजस्थानी चित्र कला पर कम लिखा गया है, विशेषज्ञों को इस और ध्यान देना चाहिए।

प्रो. चिन्मय मेहता ने कहा की बदलते समय में व्याख्यान से ज्यादा संवाद की जरूरत है। उन्होंने यह भी कहा कि केवल चित्रकला ही नहीं हर क्षेत्र में रचनात्मकता की जरूरत है।

डॉ. रीटा प्रताप ने राजस्थान के समसामयिक इतिहास पर प्रकाश डाला। जयराम पोड़वाल ने कहा की पारंपरिक चित्रकला शैली को जानना बेहद जरूरी है इसी के साथ चित्रकला का दायरा व्यापक होना चाहिए, जिससे हर कोई उस चित्र में छिपे भावों को समझा जा सके।

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