Karwa Chauth: A festival that oscillates between love, faith and equality-m.khaskhabar.com
×
khaskhabar
Nov 17, 2025 10:05 am
Location
 
   राजस्थान, हरियाणा और पंजाब सरकार से विज्ञापनों के लिए मान्यता प्राप्त
Advertisement

करवा चौथ: प्रेम, आस्था और समानता के बीच झूलता एक पर्व

khaskhabar.com: बुधवार, 08 अक्टूबर 2025 3:47 PM (IST)
करवा चौथ: प्रेम, आस्था और समानता के बीच झूलता एक पर्व
र साल कार्तिक मास की चतुर्थी को जब शाम का सूरज डूबता है, तो भारत के कोने-कोने में सजी-संवरी महिलाएं थाली में दीप, छलनी और करवा सजाकर चाँद के दर्शन करती हैं। उनके माथे पर लाल बिंदी, हाथों में मेंहदी, आँखों में इंतज़ार और होठों पर एक ही सवाल—“चाँद निकला क्या?” यह दृश्य भारतीय संस्कृति की सुंदरता का प्रतीक भी है और उसकी गहराई में छिपे सामाजिक अर्थों का आईना भी। करवा चौथ का व्रत उत्तर भारत में विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और बिहार में बड़े उत्साह से मनाया जाता है। इस दिन विवाहित महिलाएँ अपने पति की दीर्घायु के लिए सूर्योदय से चंद्रोदय तक निर्जला व्रत रखती हैं। परंपरा के अनुसार यह व्रत सुहाग की स्थिरता और पति की लंबी उम्र के लिए रखा जाता है, और दिनभर की तपस्या के बाद जब चाँद निकलता है तो पत्नी छलनी से पति का चेहरा देख कर व्रत तोड़ती है। लेकिन सवाल उठता है कि क्या यह व्रत सिर्फ प्रेम और आस्था की अभिव्यक्ति है या समाज की पितृसत्तात्मक जड़ों में गहरे धंसा एक प्रतीक? भारतीय समाज में स्त्री के जीवन को “सुहाग” से जोड़ा गया है—उसकी खुशी, उसकी प्रतिष्ठा और उसकी पहचान तक। विवाह के बाद उसके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि उसका पति माना गया, और उसकी मृत्यु को अभिशाप समझा गया। ऐसे में करवा चौथ जैसे व्रत स्त्री के समर्पण, त्याग और सहनशीलता का उत्सव बन गए। लेकिन क्या यह प्रेम का उत्सव है या स्त्री के अस्तित्व को पति की उम्र के साथ बाँध देने का सांस्कृतिक औचित्य? आज की पढ़ी-लिखी स्त्री जब करवा चौथ का व्रत रखती है, तो उसके कारण परंपरागत नहीं भी हो सकते। कई महिलाओं के लिए यह पति के प्रति प्रेम का, साथ निभाने का, रिश्ते में सामंजस्य का प्रतीक बन चुका है।
वहीं कई पुरुष भी अब पत्नी के साथ समान भाव से व्रत रखने लगे हैं—यह बदलाव सकारात्मक है। परंतु यह भी उतना ही सच है कि करवा चौथ आज एक "कल्चरल इवेंट" बन गया है—टीवी धारावाहिकों, फिल्मों और सोशल मीडिया पर यह व्रत जितना "ग्लैमरस" दिखाया जाता है, उतनी ही गहराई में उसका मूल अर्थ खोता जा रहा है। कभी यह व्रत गाँव की औरतों के बीच अपनापन और सहयोग का प्रतीक था। महिलाएँ एक-दूसरे के घर जातीं, मिट्टी के करवे (घड़े) में जल भरतीं, गीत गातीं—“करवा चौथ का व्रत है भाई, करवा लाना भूली न जाई।”
यह त्यौहार उनके लिए आपसी मिलन का अवसर था, जहाँ वे जीवन की तकलीफ़ों को साझा करतीं। पर अब यह व्रत सोने के करवे, महंगे साज-श्रृंगार और डिजाइनर साड़ियों का प्रदर्शन बन गया है। उपवास के बजाय अब “इंस्टा रील्स” का युग है—जहाँ सजना-संवरना ही मुख्य उद्देश्य बन गया है। फिर भी, परंपराओं को केवल अंधविश्वास कहकर नकार देना भी उचित नहीं। हर संस्कृति की अपनी आत्मा होती है।
करवा चौथ के पीछे जो भाव है—प्रेम, समर्पण और आस्था का—उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। लेकिन यह भी जरूरी है कि हम परंपरा को आधुनिक दृष्टि से देखें। आज जब हम समानता, स्वतंत्रता और पारस्परिक सम्मान की बात करते हैं, तो यह व्रत भी एकतरफा नहीं रहना चाहिए। यदि पत्नी पति की लंबी उम्र के लिए व्रत रखती है, तो पति भी पत्नी की सुख-समृद्धि और स्वास्थ्य के लिए समान भाव से प्रार्थना करे—यही सच्चा प्रेम और समानता है।
दिलचस्प बात यह है कि करवा चौथ का धार्मिक या पौराणिक आधार उतना स्पष्ट नहीं है जितना कि इसके लोकप्रचलन का प्रभाव। “करवा” यानी मिट्टी का घड़ा, जो प्राचीन भारत में जल का प्रतीक था, और “चौथ” यानी चतुर्थी का दिन। कुछ विद्वानों के अनुसार यह व्रत सैनिक परिवारों की परंपरा से जुड़ा था—जब पति युद्ध पर जाते थे, तो पत्नी उनकी सुरक्षित वापसी के लिए यह व्रत रखती थी। वहीं कुछ मान्यताएँ कहती हैं कि यह महिलाओं के बीच सामाजिक एकता बढ़ाने का माध्यम था। यानी इस त्यौहार का मूल भाव केवल पति की आयु से नहीं, बल्कि स्त्री के सामाजिक सहयोग से भी जुड़ा था।
आधुनिक समाज में करवा चौथ की व्याख्या के कई अर्थ हैं। एक ओर यह प्रेम का उत्सव है, तो दूसरी ओर यह स्त्री पर “आदर्श पत्नी” बनने का सामाजिक दबाव भी। यह द्वंद्व हमें सोचने पर मजबूर करता है—क्या हर प्रेम का प्रमाण त्याग से ही मापा जाएगा? क्या भूखे रहकर ही सच्ची निष्ठा सिद्ध होती है? और क्या यह परंपरा पति-पत्नी के बीच समान संबंधों का उत्सव बन पाई है या अब भी “पति-प्रधानता” का ही प्रतीक है? फिर भी, यह सच है कि समय के साथ इसके स्वरूप में बदलाव आया है। अब कई जगह पति भी व्रत रखते हैं, कई जोड़े इसे “रिलेशनशिप रिचुअल” की तरह मनाते हैं।
यह बदलाव बताता है कि समाज धीरे-धीरे समानता की ओर बढ़ रहा है। त्योहार का अर्थ वही रहता है, पर दृष्टिकोण बदल जाता है। करवा चौथ का भी यही हाल है—जहाँ पहले यह स्त्री के कर्तव्य का प्रतीक था, वहीं अब यह रिश्तों की साझेदारी का रूप ले रहा है। आज जरूरत है कि हम परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन बनाएं। करवा चौथ को न तो केवल रूढ़िवादिता समझें, न ही सिर्फ दिखावे का त्यौहार बनाएं। इसके भीतर के प्रेम, भाव और समर्पण को सच्चे अर्थों में आत्मसात करें—बिना किसी सामाजिक दबाव के।
हर स्त्री को यह अधिकार होना चाहिए कि वह चाहे तो व्रत रखे या न रखे; क्योंकि प्रेम की परिभाषा उपवास से नहीं, आपसी समझ और सम्मान से तय होती है। यदि इस व्रत के बहाने पति-पत्नी एक-दूसरे को समझने, एक-दूसरे के त्याग की कद्र करने और रिश्ते में नयापन लाने का अवसर पा सकें—तो यह त्यौहार अपने असली अर्थ में सफल होगा। क्योंकि आखिरकार, करवा चौथ सिर्फ “पति की लंबी उम्र” का पर्व नहीं, बल्कि उस रिश्ते की स्थिरता और संवेदनशीलता का प्रतीक है, जो दो आत्माओं को जोड़ता है।

ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे

Advertisement
Khaskhabar.com Facebook Page:
Advertisement
Advertisement