संवेदनहीन न्याय? बार-बार समाज को झकझोरते संवेदनहीन, अमानवीय फैसले

सुप्रीम कोर्ट ने तुरंत एक्शन लेते हुए हाई कोर्ट की विवादास्पद टिप्पणियों पर रोक लगा दी और यूपी सरकार व केंद्र सरकार से जवाब मांग लिया। अब यह मामला और भी दिलचस्प हो गया है, क्योंकि यह सिर्फ एक कानूनी लड़ाई नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना का विषय भी बन चुका है। हाईकोर्ट के फैसले में कहा गया कि पीड़िता के निजी अंग पकड़ना और नाड़ा खोलने की कोशिश करना 'दुष्कर्म की कोशिश' की परिभाषा में नहीं आता। बस, यही बयान आग में घी डालने जैसा साबित हुआ!
कानून के जानकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और आम जनता ने इस पर सवाल उठाए। कई लोगों ने इसे यौन अपराधों के खिलाफ बनाए गए कड़े कानूनों को कमजोर करने वाला करार दिया। POCSO (Protection of Children from Sexual Offences) एक्ट के तहत दर्ज इस मामले में हाई कोर्ट की टिप्पणी न केवल चौंकाने वाली थी, बल्कि इसने यह संकेत भी दिया कि शायद न्यायपालिका में कुछ बदलावों की जरूरत है। यह कोई पहला मामला नहीं है जब न्यायपालिका के किसी फैसले ने विवाद खड़ा किया हो।
इससे पहले भी कई ऐसे निर्णय सामने आए हैं, जिन्होंने यौन हिंसा से जुड़े मामलों में न्याय व्यवस्था की संवेदनशीलता पर सवाल उठाए हैं। कई बार पीड़ितों को न्याय मिलने में सालों लग जाते हैं, और कई मामलों में फैसले इतने कमजोर होते हैं कि अपराधियों को इसका लाभ मिल जाता है। कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि न्यायपालिका को यौन अपराधों के मामलों में अधिक जागरूक और संवेदनशील होने की जरूरत है।
सिर्फ कानून की किताबों में लिखी धाराओं का पालन करना पर्याप्त नहीं है, बल्कि यह भी देखना जरूरी है कि इनका समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले को गंभीरता से लेते हुए पाया कि इस तरह की टिप्पणियाँ समाज में गलत संदेश दे सकती हैं। इससे भविष्य में अन्य मामलों में भी गलत नज़ीर (precedent) बन सकती है। ऐसे में, शीर्ष अदालत ने फौरन हाई कोर्ट की विवादास्पद टिप्पणियों पर रोक लगा दी। इसके अलावा, यूपी सरकार और केंद्र सरकार को भी नोटिस जारी कर दिया गया कि वे इस पर अपना पक्ष रखें।
अब देखना दिलचस्प होगा कि सरकारें इस मुद्दे पर क्या रुख अपनाती हैं। यह मामला सिर्फ अदालत तक सीमित नहीं रहा। महिला अधिकार संगठनों, वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसे अन्याय करार दिया। ट्विटर से लेकर सड़क तक, इस फैसले का जमकर विरोध हुआ। ट्रेंड्स में #JusticeForVictims और #JudiciaryReform जैसे हैशटैग छा गए। लोगों का कहना था कि ऐसे फैसले यौन हिंसा के पीड़ितों का हौसला तोड़ सकते हैं और अपराधियों को बढ़ावा मिल सकता है। महिला संगठनों ने भी इस मुद्दे पर कड़ा विरोध जताया और मांग की कि ऐसे मामलों में न्यायपालिका को ज्यादा सतर्क रहना चाहिए।
कई विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह के फैसले समाज में महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा को लेकर डर का माहौल बना सकते हैं। भारतीय दंड संहिता (IPC) और POCSO अधिनियम के तहत यौन अपराधों के खिलाफ सख्त प्रावधान हैं। इनमें सजा के स्पष्ट प्रावधान दिए गए हैं, लेकिन कई बार अदालतों की व्याख्या इन मामलों में दोषियों को राहत देने का काम करती है। विशेषज्ञों का मानना है कि POCSO एक्ट को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए इसमें संशोधन की जरूरत है, ताकि ऐसे मामलों में सख्त और त्वरित न्याय मिल सके। सरकार को भी इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और ऐसी कानूनी खामियों को दूर करने की दिशा में कदम उठाने चाहिए।
अब सबकी नज़रें सुप्रीम कोर्ट की अगली सुनवाई पर टिकी हैं। क्या हाई कोर्ट का फैसला पूरी तरह पलटा जाएगा? क्या आरोपी की जमानत रद्द होगी? या फिर सुप्रीम कोर्ट कोई नई गाइडलाइन जारी करेगा? यह मामला सिर्फ कानूनी लड़ाई तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह भारतीय न्याय प्रणाली की कार्यप्रणाली और उसकी संवेदनशीलता की परीक्षा भी बन चुका है। इस पूरे घटनाक्रम से एक बड़ा सवाल उठता है – क्या हमारी न्याय प्रणाली यौन अपराधों के मामलों में और अधिक संवेदनशील हो सकती है? या फिर ऐसे सवेंदनहीन, अमानवीय फैसले बार-बार समाज को झकझोरते रहेंगे?
यह जरूरी है कि न्याय व्यवस्था सिर्फ कानूनी पहलुओं पर नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक आधारों पर भी फैसले ले, ताकि पीड़ितों को न्याय मिले और अपराधियों को कड़ा संदेश जाए। कानून सिर्फ किताबों में दर्ज शब्द नहीं होना चाहिए, बल्कि इसे पीड़ितों की आवाज़ बनना चाहिए। इसके अलावा, सरकार और न्यायपालिका को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि यौन हिंसा से जुड़े मामलों में दोषियों को सख्त सजा मिले और पीड़ितों को जल्द से जल्द न्याय मिले। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक ऐसे विवादित फैसले समाज को झकझोरते रहेंगे और पीड़ितों का न्याय प्रणाली से भरोसा उठता रहेगा।
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