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गुरु नानक जयंती : सत्य, सेवा और समानता का मार्ग

गुरु नानक देव जी का एक और बड़ा योगदान था – सेवा और लंगर की परंपरा। लंगर केवल भोजन का स्थान नहीं, बल्कि समानता का प्रतीक था, जहाँ राजा और रंक एक पंक्ति में बैठकर भोजन करते थे। यह परंपरा उस समय के जातिगत विभाजन को चुनौती देती थी। आज भी सिख गुरुद्वारों में यह परंपरा करोड़ों लोगों को निःस्वार्थ सेवा और सामूहिकता का अनुभव कराती है।
गुरु नानक देव जी कहते थे — “सेवा बिना गर्व के करनी चाहिए, तभी वह सच्ची सेवा होती है।” यह विचार आज के स्वार्थी समाज में उतना ही प्रासंगिक है जितना पाँच शताब्दियों पहले था। गुरु नानक देव जी ने स्त्रियों के प्रति समाज के तिरस्कारपूर्ण दृष्टिकोण का भी विरोध किया। उन्होंने कहा — “सो क्यों मंदा आखिए, जित जन्मे राजान।”
अर्थात् — जिसे जन्म देने वाली स्त्री है, उसे निम्न क्यों कहा जाए? उनकी यह वाणी भारतीय समाज में स्त्री समानता का सबसे प्राचीन और सशक्त उद्घोष है। आज जब नारी सशक्तिकरण की चर्चा वैश्विक मंचों पर होती है, तब गुरु नानक के विचार हमें याद दिलाते हैं कि सच्ची समानता किसी कानून से नहीं, बल्कि दृष्टिकोण से आती है।
गुरु नानक देव जी का संदेश धार्मिक सहिष्णुता और संवाद का प्रतीक था। उन्होंने विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों के लोगों से संवाद किया, मक्का-मदीना, तिब्बत और बंगाल तक की यात्राएँ कीं, जिन्हें उदासियाँ कहा जाता है। इन यात्राओं के दौरान उन्होंने यह स्पष्ट किया कि सच्चा धर्म मानवता की सेवा है, न कि केवल पूजा-पाठ का प्रदर्शन। उन्होंने यह भी कहा — “ईश्वर सब में है, कोई छोटा-बड़ा नहीं।” यह विचार हमें जातीय, धार्मिक और भाषाई विभाजन से ऊपर उठने की प्रेरणा देता है।
21वीं सदी का समाज तकनीकी रूप से भले ही अत्याधुनिक हो गया हो, परंतु मानसिक और नैतिक रूप से वह अब भी विभाजन, घृणा और असमानता से जूझ रहा है। इस स्थिति में गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ मार्गदर्शक प्रकाश की तरह हैं। उन्होंने ईमानदारी और मेहनत को जीवन का मूल माना, जो आज के भ्रष्टाचार और दिखावे के युग में एक नैतिक दिशा प्रदान करता है। उन्होंने समानता की जो बात कही, वह आज के सामाजिक न्याय और मानव अधिकारों के विमर्श की आत्मा है। उनकी सेवा की भावना हमें बताती है कि दूसरों के कल्याण में ही आत्मिक संतोष है।
गुरु नानक देव जी ने प्रकृति को ईश्वर की रचना माना औ कहा — “पवण गुरु, पानी पिता, माता धरत महत।” यह श्लोक पर्यावरण संतुलन का महान संदेश देता है। उन्होंने सिखाया कि जब हम प्रकृति का सम्मान करते हैं, तभी जीवन में शांति आती है। आज जब पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन और पारिस्थितिक संकट से गुजर रही है, गुरु नानक की यह वाणी पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो जाती है। गुरु नानक देव जी के विचार केवल धार्मिक नहीं थे, बल्कि उनमें लोकतंत्र की भावना भी निहित थी।
उन्होंने सामूहिक निर्णय और परामर्श की परंपरा को बढ़ावा दिया। उनके अनुयायियों के बीच संगत और पंगत का विचार इस लोकतांत्रिक सोच का प्रतीक है — जहाँ सभी बराबर हैं, किसी का वर्चस्व नहीं। गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ किसी एक काल, धर्म या संस्कृति की नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए अमर मार्गदर्शन हैं। जब हम उनके उपदेशों — सत्य, करुणा, सेवा और समानता — को अपने जीवन में उतारते हैं, तब हम न केवल आध्यात्मिक रूप से ऊँचे उठते हैं, बल्कि समाज में भी न्याय और शांति की नींव रखते हैं।
गुरु नानक जयंती हमें यह याद दिलाती है कि ईश्वर के प्रति सच्ची श्रद्धा केवल मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारे में झुकने से नहीं, बल्कि हर जीव के प्रति प्रेम और सम्मान में निहित है। आज की दुनिया को सबसे अधिक आवश्यकता है — गुरु नानक के विचारों की लौ को पुनः प्रज्ज्वलित करने की। उनका संदेश सदा अमर रहेगा —
“सबना अंदरि एकु रबु वरतै, सबना का करता आपे सोई।”
(ईश्वर सबके भीतर है, वही सबका रचयिता है।)
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