चॉक से चुभता शोषण: प्राइवेट स्कूल का मास्टर और उसकी गूंगी पीड़ा

प्राइवेट स्कूलों में सैलरी का सिस्टम इतना गोपनीय है कि सीक्रेट एजेंसियाँ भी शर्मा जाएं। अपॉइंटमेंट लेटर पर ₹25,000 लिखा होता है, लेकिन बैंक में ₹8,000 ट्रांसफर होते हैं। बाकी कैश में मिलते हैं या कभी नहीं मिलते। और मज़ा देखिए—टीचर से सैलरी का हिसाब माँगा जाए तो जवाब होता है: “बोलिए, नौकरी चाहिए या नहीं?” घर में बहू, माँ और पत्नी। स्कूल में मैडम, टीचर और दीदी। महिला शिक्षकों को दोहरी ज़िम्मेदारी के साथ जीना पड़ता है। सुबह 5 बजे से घर संभालो, फिर स्कूल जाओ और वहाँ 40 बच्चों की जिम्मेदारी उठाओ। ऊपर से अगर पति भी प्राइवेट सेक्टर में हो, तो महीने की सैलरी से पहले ही घर का बजट गिरवी रख देना पड़ता है।
सरकारी कैलेंडर कहता है—15 अगस्त छुट्टी है, 26 जनवरी छुट्टी है, लेकिन प्राइवेट स्कूल कहता है—“आओ, झंडा फहराओ, भाषण दो, फिर हाजिरी लगाओ और जाओ।” छुट्टी के दिन भी हाज़िरी की मजबूरी। अगर बीमार पड़ गए, तो HR कहेगा—"छुट्टी नहीं है, डिडक्शन लगेगा।" शिक्षक का गला बैठ जाए, तब भी कहा जाता है—“क्लास तो लेनी होगी, और कोई नहीं है।” आज शिक्षक सिर्फ पढ़ाता नहीं है, वो क्लास टीचर है, परीक्षा नियंत्रक है, अभिभावक संवाद अधिकारी है, व्हाट्सएप ग्रुप एडमिन है, स्पोर्ट्स डे का आयोजक है और हर हफ्ते सेल्फी वाले वीडियो का संपादक भी। लेकिन जब सैलरी की बात आए, तो कहा जाता है—“आप तो सिर्फ दो पीरियड पढ़ाते हैं।”
बच्चा अगर टॉप करे तो प्रिंसिपल प्रेस कॉन्फ्रेंस करता है—“हमारे स्कूल का वातावरण ही ऐसा है।” और अगर बच्चा फेल हो जाए तो मास्टर की जवाबदेही तय होती है—“आपने ठीक से पढ़ाया नहीं।” जीत स्कूल की, हार शिक्षक की। फोटो बैनर पर प्रिंसिपल की, मेहनत मास्टर की। आजकल अभिभावक चाहते हैं कि शिक्षक 3 महीने में उनके बच्चे को आईएएस बना दे, और अगर ऐसा न हो पाए तो कहते हैं—“हम तो सरकारी स्कूल में डाल देते तो भी क्या फर्क पड़ता!” बच्चे की गलती भी अब मास्टर की जिम्मेदारी है। पैरेंट्स मीटिंग में सबसे ज़्यादा डांट मास्टर खाता है।
5 सितंबर को बच्चों से "हैप्पी टीचर्स डे" के फूल मिलते हैं। बच्चे गाना गाते हैं—"सर आप महान हैं" और अगले ही दिन वही बच्चा होमवर्क न करने पर कहता है—"टीचर का क्या है, कुछ भी बोल देते हैं।" साल भर की जिल्लत को एक दिन की इज़्ज़त से ढकना, अब आदत बन गई है। नई शिक्षा नीति 2020 कहती है कि शिक्षक की स्थिति मज़बूत होनी चाहिए। लेकिन ज़मीनी हकीकत ये है कि न कोई रेगुलेशन है, न कोई निगरानी। जिला शिक्षा अधिकारी सिर्फ सरकारी स्कूलों की जांच करता है, प्राइवेट स्कूलों को छूट मिली हुई है—"अपना नियम खुद बनाओ, खुद चलाओ।"
आज छात्र अधिकारों की बात करता है—मार नहीं खाना, होमवर्क कम मिलना, रिजल्ट अच्छा आना। लेकिन शिक्षक के अधिकारों की बात कौन करे? क्या कोई RTI लगा सकता है कि मास्टर को कितनी सैलरी मिल रही है? नहीं। क्योंकि शिक्षक अधिकारों की बात करना आज भी "असहनीय" माना जाता है। अब वक़्त आ गया है कि शिक्षक चुप्पी तोड़े। सरकार को चाहिए कि एक रेगुलेटरी बॉडी बनाए जो प्राइवेट स्कूलों की सैलरी, काम के घंटे, छुट्टियाँ और काम का बोझ तय करे। हर जिले में निजी शिक्षकों की यूनियन बने जो एक स्वर में बोले।
अभिभावकों को भी समझना होगा कि शिक्षक सिर्फ एक वेतनभोगी कर्मचारी नहीं, बल्कि उनके बच्चे के भविष्य का निर्माता है। देश अगर आगे बढ़ना चाहता है तो सबसे पहले उस हाथ को संभालना होगा जो ब्लैकबोर्ड पर चॉक से भविष्य रचता है। उस आवाज़ को सुनना होगा जो हर दिन "गुड मॉर्निंग" कहकर बच्चे को दिन की शुरुआत सिखाता है। शिक्षक की मुस्कान में देश की मुस्कान छिपी है, लेकिन उस मुस्कान के पीछे कितना दर्द है, ये जानने वाला कोई नहीं। “बच्चा फेल हो जाए तो शिक्षक जिम्मेदार। बच्चा टॉप कर जाए तो स्कूल का नाम।” ये संतुलन तोड़ना होगा। अगर प्राइवेट स्कूलों को सचमुच शिक्षा का मंदिर बनाना है, तो पहले उसमें शिक्षक की पूजा होनी चाहिए—कम से कम उसका शोषण तो बंद हो।
ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
Advertisement
Advertisement
हिसार
हरियाणा से
सर्वाधिक पढ़ी गई
Advertisement
Traffic
Features
