Dhanteras: Beauty of mind is more important than jewellery, poverty of mind is the biggest poverty-m.khaskhabar.com
×
khaskhabar
Nov 13, 2025 10:27 am
Location
 
   राजस्थान, हरियाणा और पंजाब सरकार से विज्ञापनों के लिए मान्यता प्राप्त
Advertisement

धनतेरस: आभूषणों से ज़्यादा मन का सौंदर्य जरूरी, मन की गरीबी है सबसे बड़ी दरिद्रता

khaskhabar.com: शनिवार, 18 अक्टूबर 2025 2:59 PM (IST)
धनतेरस: आभूषणों से ज़्यादा मन का सौंदर्य जरूरी, मन की गरीबी है सबसे बड़ी दरिद्रता
नतेरस का नाम लेते ही आंखों के सामने दीपों की उजास, सोने-चांदी की झिलमिलाहट, बाज़ारों का रौनकभरा शोर और पूजा की तैयारियों में जुटे घर-घर के दृश्य उभर आते हैं। यह दिन न केवल खरीदारी का त्योहार है, बल्कि भारतीय संस्कृति के गहरे दर्शन का प्रतीक भी है। यह वह दिन है जब लोग मानते हैं कि लक्ष्मी माता घर आएंगी, समृद्धि का आशीर्वाद देंगी, और दुर्भाग्य के अंधकार को मिटा देंगी। परंतु अगर हम इस पर्व के पीछे के दर्शन को गहराई से देखें, तो पाएंगे कि धनतेरस का अर्थ केवल सोना-चांदी खरीदना नहीं, बल्कि ‘धन’ की सही परिभाषा को समझना है। ‘धन’ शब्द संस्कृत के ‘धना’ से बना है, जिसका अर्थ केवल संपत्ति या पैसा नहीं बल्कि समृद्धि, सुख और संतोष का संगम है। प्राचीन ग्रंथों में धनतेरस को ‘धनत्रयोदशी’ कहा गया है — अर्थात धन और स्वास्थ्य दोनों की कामना का दिन। इसी दिन समुद्र मंथन से धनवंतरि देवता अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे, जिन्होंने मानवता को स्वास्थ्य का वरदान दिया। यही कारण है कि इस दिन को आयुर्वेद दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। जब दुनिया धन को केवल भौतिक संपत्ति के रूप में देखती है, तब भारतीय दर्शन इसे शरीर, मन और आत्मा की समृद्धि के रूप में देखता है। आज के समय में धनतेरस का रूप काफी बदल गया है। पहले जहां यह दिन दीप जलाने, घर साफ़ करने और देवी-देवताओं की पूजा का होता था, अब यह दिन शॉपिंग मॉल और ऑनलाइन सेल का प्रतीक बन गया है। धनतेरस आते ही लोग सोना, चांदी, कार, बाइक, फ्रिज, टीवी, मोबाइल—सब कुछ खरीदने की होड़ में लग जाते हैं। लेकिन क्या यही असली ‘धन’ है? क्या केवल महंगी वस्तुएं खरीदकर हम सच में समृद्ध हो जाते हैं? शायद नहीं।
असली समृद्धि तो उस मन में है जो संतोष जानता है, उस घर में है जहाँ प्रेम की दीवारें मजबूत हैं, और उस समाज में है जहाँ सभी के पास रोटी, कपड़ा और सम्मान हो। धनतेरस हमें यह भी सिखाता है कि धन का उपयोग कैसा हो। जब धन भगवान धनवंतरि से जुड़ा हुआ है, तो इसका अर्थ यह भी है कि धन स्वास्थ्य और जीवन की रक्षा के लिए होना चाहिए, न कि दिखावे और व्यर्थ विलासिता के लिए। लेकिन आज की हकीकत यह है कि लोग धनतेरस पर नई चीज़ें खरीदने के लिए कर्ज़ तक ले लेते हैं। त्योहार खुशियों का होना चाहिए, पर वह तनाव और तुलना का माध्यम बन जाता है।
सोशल मीडिया पर कौन कितना खरीद रहा है, किसने कौन-सी गाड़ी ली—यह तुलना हमें भीतर से खोखला कर देती है। असली पूजा तो तब है जब हम अपने जीवन में संतुलन और संयम को जगह दें। एक समय था जब धनतेरस के अवसर पर लोग मिट्टी के दीप, तांबे या पीतल के बर्तन खरीदते थे। यह परंपरा केवल प्रतीकात्मक नहीं थी, बल्कि वैज्ञानिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण थी। मिट्टी के दीप अंधकार मिटाने का प्रतीक हैं, और धातु के बर्तन स्वास्थ्य व सकारात्मक ऊर्जा का। लेकिन अब इन बर्तनों की जगह चमकदार चाइनीज़ लाइट्स और प्लास्टिक के सजावटी सामान ने ले ली है।
पहले जहां घरों में ‘शुभ-लाभ’ लिखकर दीवारें सजी होती थीं, अब ‘डिस्काउंट’ और ‘कैशबैक’ के बोर्ड झिलमिला रहे हैं। यह बदलाव केवल बाहरी नहीं, बल्कि हमारे भीतर के मूल्यबोध में भी आया है। धनतेरस का एक और गहरा संदेश है—‘धन’ और ‘धर्म’ के संतुलन का। यदि धन अधर्म के मार्ग से अर्जित किया गया है, तो वह कभी सुख नहीं दे सकता।
महाभारत में कहा गया है—“धनं धर्मेण सञ्चयेत्” यानी धन को धर्म के मार्ग से अर्जित करो। आज जब समाज में भ्रष्टाचार, लालच और अनैतिक कमाई बढ़ रही है, तब धनतेरस हमें याद दिलाता है कि असली पूजा वह नहीं जो सोने के दीपक से हो, बल्कि वह है जो ईमानदारी और परिश्रम से कमाए धन से की जाए। इस दिन जब हम दीप जलाते हैं, तो वह केवल बाहर का अंधकार नहीं मिटाता, बल्कि भीतर के लालच, ईर्ष्या और मोह के अंधकार को भी दूर करने का संदेश देता है।
इस पर्व का एक आयुर्वेदिक और वैज्ञानिक पक्ष भी है। कार्तिक मास की त्रयोदशी के दिन मौसम बदलता है, सर्दी की शुरुआत होती है, और शरीर में रोगों की संभावना बढ़ जाती है। ऐसे समय में भगवान धनवंतरि की पूजा करना इस बात का प्रतीक है कि हमें अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए। धनतेरस का अर्थ केवल धन प्राप्ति नहीं, बल्कि दीर्घायु, स्वास्थ्य और मानसिक संतुलन की प्राप्ति भी है। जब शरीर स्वस्थ होगा, तभी जीवन में वास्तविक सुख और समृद्धि होगी। अगर हम अपने पुरखों की जीवनशैली देखें, तो वे त्योहारों को केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं मानते थे, बल्कि सामाजिक समरसता और पर्यावरण संतुलन का अवसर भी समझते थे।
धनतेरस के दिन घरों की सफाई का चलन केवल देवी लक्ष्मी के स्वागत के लिए नहीं, बल्कि स्वच्छता के प्रतीक के रूप में भी था। दीप जलाना केवल अंधकार हटाने के लिए नहीं, बल्कि प्रदूषण कम करने और वातावरण को पवित्र करने का एक उपाय भी था। लेकिन आज सफाई की जगह सजावट ने ले ली है, और पवित्रता की जगह दिखावे ने। धनतेरस समाज में समानता का भी प्रतीक रहा है। पुराने समय में अमीर-गरीब सभी इस दिन अपने घरों में दीप जलाते थे। किसी के पास सोना-चांदी न हो तो वह मिट्टी का दीपक जलाकर भी अपनी श्रद्धा प्रकट करता था।
आज यह भाव कम होता जा रहा है। त्योहार जो कभी सबको जोड़ता था, अब वर्गों में बाँट रहा है। मॉलों की चकाचौंध में झुग्गियों की अंधेरी रातें दब जाती हैं। यह सोचने की बात है कि अगर लक्ष्मी सच्चे मन से हर घर में आती हैं, तो इतने लोग भूखे क्यों हैं? इतने किसान कर्ज़ में क्यों मर रहे हैं? क्या हमने लक्ष्मी को केवल अमीरों की देवी बना दिया है? धनतेरस का वास्तविक संदेश यही है कि हमें धन का सही उपयोग करना सीखना चाहिए। यह दिन हमें यह सोचने का अवसर देता है कि हमारा धन कितने लोगों के जीवन में रोशनी लाता है।
अगर हम अपने धन से किसी गरीब की मदद करें, किसी बीमार के इलाज में सहयोग दें, किसी जरूरतमंद बच्चे की पढ़ाई में योगदान दें—तो वही असली धनतेरस होगी। लक्ष्मी तभी स्थायी होती हैं जब उनका उपयोग दूसरों की भलाई में होता है। वरना वह केवल कुछ समय की झिलमिलाहट बनकर रह जाती हैं। आज के युग में जब हम डिजिटल भुगतान, ऑनलाइन शॉपिंग और कृत्रिम रोशनी के बीच धनतेरस मना रहे हैं, तब यह और भी ज़रूरी है कि हम इस पर्व की आत्मा को पहचानें। यह पर्व हमें अपने घर के साथ-साथ अपने मन का भी ‘क्लीनिंग डे’ बनाने का अवसर देता है।
अपने भीतर के लोभ, ईर्ष्या, स्वार्थ और दिखावे की धूल झाड़कर अगर हम मन में करुणा, ईमानदारी और प्रेम के दीप जला सकें, तो वही सच्चा धनतेरस होगा। धनतेरस केवल एक दिन नहीं, एक दृष्टिकोण है—जीवन को संतुलित, स्वास्थ्यपूर्ण और अर्थपूर्ण बनाने का दृष्टिकोण। यह हमें सिखाता है कि धन का मूल्य उसकी मात्रा में नहीं, बल्कि उसके प्रयोग में है। अगर हम धन को साधन बनाएँ, साध्य नहीं, तो वह जीवन में सौंदर्य और संतोष दोनों लाता है। लेकिन अगर वही धन हमें दूसरों से श्रेष्ठ दिखने की दौड़ में ले जाए, तो वह वरदान नहीं, अभिशाप बन जाता है।
आज के समय में शायद सबसे बड़ा ‘धन’ यह है कि हम अपनी मानसिक शांति को बचा पाएँ। परिवार के साथ बैठकर मुस्कुरा सकें, कुछ समय अपनों को दे सकें, बुजुर्गों के चरण छूकर आशीर्वाद ले सकें—यह भी धनतेरस का ही भाव है। क्योंकि जो घर प्रेम और सम्मान से भरा हो, वहाँ लक्ष्मी अपने आप आ जाती हैं। त्योहारों की असली चमक सोने या चांदी की नहीं होती, वह मन की निर्मलता में होती है। दीपों की रोशनी बाहर तभी फैलेगी जब भीतर के दीप प्रज्वलित हों। इसलिए इस धनतेरस पर अगर आप कुछ खरीदना ही चाहें, तो अपने लिए संयम, करुणा और संतोष खरीदिए। यह वे अमूल्य वस्तुएं हैं जो कभी पुरानी नहीं पड़तीं, कभी चोरी नहीं होतीं, और जीवनभर समृद्धि देती हैं।
धनतेरस का यह पर्व हमें हर वर्ष यह याद दिलाता है कि समृद्धि केवल धनवान बनने में नहीं, बल्कि मनवान बनने में है। जब हम अपने कर्मों से दूसरों के जीवन में प्रकाश फैलाते हैं, जब हम अपनी कमाई से किसी का अंधकार मिटाते हैं—तभी सच्चे अर्थों में ‘धनतेरस’ होती है। इसलिए दीप जलाइए, पर साथ ही किसी और के जीवन में भी उम्मीद का दीप जलाइए। यही इस पर्व का सबसे सुंदर संदेश है।

ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे

Advertisement
Khaskhabar.com Facebook Page:
Advertisement
Advertisement