Bureaucracy in the shadow of power: A mirror of Haryana and the reality of the country-m.khaskhabar.com
×
khaskhabar
Nov 17, 2025 10:14 am
Location
 
   राजस्थान, हरियाणा और पंजाब सरकार से विज्ञापनों के लिए मान्यता प्राप्त
Advertisement

सत्ता की छाया में नौकरशाही: हरियाणा का आईना और देश की हकीकत

khaskhabar.com: रविवार, 12 अक्टूबर 2025 5:38 PM (IST)
सत्ता की छाया में नौकरशाही: हरियाणा का आईना और देश की हकीकत
देश की नौकरशाही में एक्सटेंशन संस्कृति आज एक गंभीर समस्या बन चुकी है। वरिष्ठ अधिकारी अपनी सेवा अवधि के बाद भी सत्ता के निकटता और राजनीतिक हाजिरी के आधार पर पदों पर टिके रहते हैं। इससे न केवल प्रशासनिक निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं बल्कि यह संदेश भी जाता है कि योग्यता और दक्षता से अधिक महत्वपूर्ण राजनीतिक सुख-संबंध और सत्ता के साथ सामंजस्य है। हरियाणा के डीजीपी शत्रुजीत कपूर का मामला, आईपीएस पूरन कुमार की दुखद आत्महत्या, और अफसरशाही के भीतर बढ़ती गुटबाज़ी इस तथ्य की पुष्टि करती हैं कि सच बोलने और ईमानदारी बनाए रखने की कोशिशें धीरे-धीरे दबाई जा रही हैं। आज देश में कई वरिष्ठ अधिकारी अपने निर्धारित सेवा अवधि के बाद भी एक्सटेंशन पर बने हुए हैं। कुछ लोग इसे अनुभव का लाभ मानते हैं, तो कुछ इसे राजनीतिक सुविधा का परिणाम। वास्तविकता यह है कि एक्सटेंशन अब सम्मान नहीं बल्कि सत्ता के निकट रहने का प्रमाण बन चुका है। यदि कोई अफसर शासन की इच्छाओं के अनुरूप काम करता है तो उसके लिए नियमों की दीवारें लचीली हो जाती हैं, और यदि वह अपनी ईमानदारी और निष्पक्षता के साथ काम करता है तो उसे किनारे कर दिया जाता है। हरियाणा में डीजीपी शत्रुजीत कपूर का मामला इस प्रवृत्ति का जीवंत उदाहरण है। जुलाई में सरकार ने घोषणा की कि वे 31 अक्टूबर 2026 तक अपने पद पर बने रहेंगे, यानी रिटायरमेंट तक।
इस फैसले ने केवल आईपीएस बिरादरी में असंतोष नहीं फैलाया बल्कि यह सवाल भी खड़ा किया कि क्या किसी राज्य में इतनी लंबी अवधि के लिए राजनीतिक सुविधा अनुसार पद तय होना न्यायसंगत है। आईपीएस पूरन कुमार का मामला इस संवेदनहीनता का काला अध्याय है। वह अधिकारी जिसने वर्षों से अपने साथ हुए भेदभाव, उत्पीड़न और अपमान के खिलाफ आवाज उठाई, अंततः सिस्टम की कठोरता के कारण टूट गया।
उनकी आत्महत्या केवल एक व्यक्तिगत त्रासदी नहीं है, बल्कि यह इस बात की गवाही है कि सच बोलने वाला अफसर आज सबसे असुरक्षित प्राणी बन चुका है। पोस्टमार्टम में देरी, अधिकारियों की चुप्पी और सत्ता का मौन इस सामूहिक अपराध को और स्पष्ट करता है। जब संस्थाएं व्यक्ति से बड़ी नहीं बल्कि व्यक्ति या सत्ता से बंधक बन जाएँ तो सच बोलने वाले की रक्षा करना असंभव हो जाता है।
हरियाणा पुलिस के भीतर आईपीएस अफसरों का एक गुट डीजीपी के खिलाफ मुखर है, जबकि दूसरा गुट सत्ता के साथ खड़ा है। यह विभाजन केवल पुलिस बल की कार्यक्षमता को कमजोर नहीं करता, बल्कि यह संदेश भी देता है कि सत्य और साहस अब गुटबाज़ी और व्यक्तिगत स्वार्थ के जाल में फँस चुके हैं। डीजीपी का कथित बयान कि “मैं छुट्टी पर जाऊँगा, तो मेरे लौटने तक किसी स्थायी डीजीपी की नियुक्ति न हो” प्रशासनिक अनुशासन के बजाय व्यक्तिगत सत्ता की अभिव्यक्ति है।
सवाल यह नहीं कि वे कितने कुशल अधिकारी हैं, बल्कि यह है कि क्या किसी व्यक्ति को संस्थागत निर्णयों को इस तरह शर्तों में बाँधने की अनुमति होनी चाहिए। हर लोकतंत्र की आत्मा उसकी स्वतंत्र नौकरशाही होती है। लेकिन जब नौकरशाही सत्ता की छाया में पलने लगे, तो वह लोकसेवा नहीं, राजसेवा बन जाती है। अफसरों के बीच यह धारणा मजबूत हो रही है कि सच बोलने से करियर खतरे में पड़ सकता है, जबकि हां में हां मिलाने से एक्सटेंशन और पोस्टिंग सुरक्षित रहती है।
यह प्रवृत्ति केवल हरियाणा में नहीं, बल्कि लगभग हर राज्य में दिखने लगी है, जहां फाइलें अब नियमों से नहीं, बल्कि रिश्तों और राजनीतिक हाजिरी से चलती हैं। पूरन कुमार जैसे मामलों में केवल सहानुभूति नहीं, बल्कि संस्थागत सुधार की आवश्यकता है। एक्सटेंशन की नीति पारदर्शी होनी चाहिए और केवल असाधारण परिस्थितियों में ही विस्तार दिया जाना चाहिए। मानसिक उत्पीड़न और भेदभाव की शिकायतों पर स्वतंत्र जांच व्यवस्था होनी चाहिए।
वरिष्ठ अधिकारियों की जवाबदेही सुनिश्चित हो, ताकि पद केवल शक्ति का प्रतीक न रहे, बल्कि उत्तरदायित्व का दायरा भी बने। राजनीतिक और प्रशासनिक संतुलन को पुनः परिभाषित किया जाए, ताकि अधिकारी भयमुक्त होकर अपने दायित्वों का निर्वहन कर सकें। पूरन कुमार की दुखद मौत एक चेतावनी है कि यदि सच्चाई और ईमानदारी के लिए खड़ा होना जोखिम भरा हो जाए, तो प्रशासनिक प्रणाली का मूल उद्देश्य खतरे में पड़ जाता है।
एक्सटेंशन पर टिके अधिकारी और चुपचाप देखती संस्थाएं इस बात का प्रतीक हैं कि सत्ता ने प्रशासनिक तंत्र को धीरे-धीरे अपने अधीन कर लिया है। देश के नागरिकों को यह समझना चाहिए कि नौकरशाही की मजबूती व्यक्ति के साहस से नहीं, बल्कि संस्थाओं की पारदर्शिता और जवाबदेही से आती है। जब कोई अधिकारी अपनी नौकरी, सम्मान और अंततः जीवन तक गंवा देता है, तो यह केवल उसकी हार नहीं, बल्कि शासन की नैतिक पराजय है।
अब सवाल यह नहीं कि कौन डीजीपी रहेगा, बल्कि यह है कि क्या कोई ऐसा अधिकारी बचेगा जो सच के लिए खड़ा हो सके। यदि ऐसे लोग नहीं बचे, तो देश में केवल राजनीतिक हुकूमत बचेगी और प्रशासनिक व्यवस्था समाप्त हो जाएगी। हरियाणा का यह मामला पूरे देश के लिए आईना है। यह हमें याद दिलाता है कि सत्ता के दबाव और राजनीतिक स्वार्थ के बीच सच बोलने वाले अफसरों का अस्तित्व किस हद तक संकट में है।
अगर प्रशासनिक तंत्र को बचाना है, तो पारदर्शिता, जवाबदेही और निष्पक्षता ही उसके आधार होना चाहिए। वरना केवल पद और सत्ता का खेल बच जाएगा, और जनता का भरोसा पूरी तरह टूट जाएगा।

ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे

Advertisement
Khaskhabar.com Facebook Page:
Advertisement
Advertisement