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वेब सीरीज समीक्षा: कमजोर लेखन के चलते डीके और राज की साख को धक्का पहुँचाती है फर्जी

—राजेश कुमार भगताणी
काफी समय से शाहिद कपूर के ओटीटी डेब्यू फर्जी को लेकर मीडिया में काफी कुछ पढ़ा जा रहा था। द फैमिली मैन की अभूतपूर्व सफलता के बाद कृष्णा डीके और राज निदिमोरू निर्देशित फर्जी को लेकर काफी उम्मीदें थीं। वजह थी स्वयं डीके और राज साथ ही शाहिद कपूर और दक्षिण भारत के ख्यातनाम अभिनेता विजय सेतुपति। इन नामों को देखकर सोचा था कि फर्जी बेहतरीन सीरीज में शुमार होगी, जिसे दर्शक जब चाहे तब देखने का मन बनाएगा। अफसोस 10 फरवरी को स्ट्रीम हुई इस सीरीज को देखते बोरियत महसूस हुई।
कृष्णा डीके और राज निदिमोरू अपनी कहानियों में और ह्यूमर का भरपूर घोल दर्शकों को पिलाते रहे हैं। लेकिन फर्जी में इन दोनों चीजों की कमी है। साथ ही वे फर्जी को वो गति प्रदान नहीं कर पाए जिसकी उसे आवश्यकता थी। 8 एपिसोड की इस सीरीज का कथानक जाली नोटों के फैले साम्राज्य और पसरे नेटवर्क और उसे खत्म करने वाले फर्ज पर है। फिल्म की कहानी जहाँ सुस्त हैं, वहीं इसका सम्पादन भी लचर है। सीरीज में कई ऐसे दृश्य हैं जिन्हें आसानी से हटाते हुए उसमें कसावट लाई जा सकती थी। हालांकि वे नोटों की जालसाजी करने के तरीकों की बारीकियों में गए हैं। लेखक द्वय ने अपनी लेखनी के जरिये मध्यम वर्गीय परिवारों को मजबूती के साथ पेश किया है। उन्होंने अपने कथानक में सिस्टम के चलते बदहाल जिंदगी जी रहे मिडिल क्लास को नकली नोटों के सरगनाओं के साथ बेहतर संजोया है लेकिन वो बात नहीं बन पाई है जो उन्होंने अपनी पूर्व की फिल्मों और वेब सीरीज द फैमिली मैन में दिखायी थी।
कहानी सनी (शाहिद कपूर), उसके नानाजी (अमोल पालेकर), सनी के दोस्त फिरोज (भुवन अरोड़ा) और दूसरी तरफ जांच अधिकारी माइकल (विजय सेतुपति), उसकी टीम से मेघना (राशि खन्ना) और जाली नोटों के सरगना मंसूर दलाल (केके मेनन) की दो समानांतर अलग दुनिया से शुरू होती है। माइकल नकली नोटों के सरगना को पकडऩा चाहता है, सनी गरीबी से दूर होना चाहता है, इसके लिए वह अपने नाना की प्रिंटिंग प्रेस में नकली नोट छापता है जिसके चलते वह नकली नोटों के सरगना मंसूर दलाल के चक्कर में फंस जाता है।
सनी अपने नाना के सपने साकार करने और उन्हें कर्ज से उबारने को अपने जिगरी दोस्त फिरोज के साथ नकली नोटों की छपाई में उतरता है। शुरुआत छोटे लेवल पर होती है। शुरुआती झटकों के बाद किस्मत साथ भी देती है। लिहाजा आगे चलकर सनी का अपराध बोध भी कम होता चला जाता है। फिर सनी और फिरोज किस तरह आगे चलकर मेघना, माइकल की रडार पर और मंसूर दलाल की दलदल में कैसे आते हैं, क्या होता है, वह सब कुछ 8 एपिसोड्स में चलता है।
निर्देशक के तौर पर राज और डीके पूरी तरह से निराश करते हैं। उन्होंने मध्यम वर्गीय को तो शिद्दत से पेश किया है लेकिन फिल्म के मुख्य प्लॉट पर आने में उन्हें देर लगती है। तब तक सीरीज आधी से ज्यादा समाप्त हो चुकी होती है। इस देरी का सबसे बड़ा कारण उन्होंने नोट की छपाई की डिटेलिंग में वक्त जाया किया है। इससे दर्शक बोरियत महसूस करता है। मंसूर दलाल का ट्रैक और सनी को अपने ट्रैप में लेने का घटनाक्रम भी सही नजर नहीं आता है।
लेखन की कमजोरी की वजह से किरदार उभर नहीं पाए हैं जिसके चलते अदाकारों को अपनी अदाकारी दिखाने का अवसर नहीं मिला है। नाना के रूप में अमोल पालेकर का किरदार मकसद विहीन है, अभिनय भी उनका काम चलाऊ है। विजय सेतुपति सरीखी अदाकार को वे सामान्य तौर पर ही पेश कर पाए हैं। शाहिद कपूर शुरूआत में कुछ प्रभाव छोडते हैं लेकिन बाद में वे पूरी तरह से निराश करते हैं। सेतुपति की सहायक के रूप में राशि खन्ना भी प्रभावहीन हैं।
शाहिद कपूर की यह पहली वेब सीरीज है। सीरीज का विषय अच्छा था लेकिन कहानी उतनी ही बोर व धीमी गति की है, जिसके चलते दर्शक स्वयं को उससे जुड़ा हुआ महसूस नहीं करता है। 8 एपिसोड की इस सीरीज में चंद एपिसोड के बाद केवल खानापूर्ति करने वाली कहानी मिलती है। कहानी लम्बी नहीं है, इसे वेब सीरीज के चक्कर में रबड़ की तरह खींचा गया है। इस पर तो दो घंटे की फिल्म ही सही रहती। निर्देशन भी प्रभावहीन हैं।
निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि यदि आपके पास देखने के लिए और कुछ नहीं है तो आप फर्जी को देखते हुए अपना कुछ समय बोरियत भरा कर सकते हैं।
काफी समय से शाहिद कपूर के ओटीटी डेब्यू फर्जी को लेकर मीडिया में काफी कुछ पढ़ा जा रहा था। द फैमिली मैन की अभूतपूर्व सफलता के बाद कृष्णा डीके और राज निदिमोरू निर्देशित फर्जी को लेकर काफी उम्मीदें थीं। वजह थी स्वयं डीके और राज साथ ही शाहिद कपूर और दक्षिण भारत के ख्यातनाम अभिनेता विजय सेतुपति। इन नामों को देखकर सोचा था कि फर्जी बेहतरीन सीरीज में शुमार होगी, जिसे दर्शक जब चाहे तब देखने का मन बनाएगा। अफसोस 10 फरवरी को स्ट्रीम हुई इस सीरीज को देखते बोरियत महसूस हुई।
कृष्णा डीके और राज निदिमोरू अपनी कहानियों में और ह्यूमर का भरपूर घोल दर्शकों को पिलाते रहे हैं। लेकिन फर्जी में इन दोनों चीजों की कमी है। साथ ही वे फर्जी को वो गति प्रदान नहीं कर पाए जिसकी उसे आवश्यकता थी। 8 एपिसोड की इस सीरीज का कथानक जाली नोटों के फैले साम्राज्य और पसरे नेटवर्क और उसे खत्म करने वाले फर्ज पर है। फिल्म की कहानी जहाँ सुस्त हैं, वहीं इसका सम्पादन भी लचर है। सीरीज में कई ऐसे दृश्य हैं जिन्हें आसानी से हटाते हुए उसमें कसावट लाई जा सकती थी। हालांकि वे नोटों की जालसाजी करने के तरीकों की बारीकियों में गए हैं। लेखक द्वय ने अपनी लेखनी के जरिये मध्यम वर्गीय परिवारों को मजबूती के साथ पेश किया है। उन्होंने अपने कथानक में सिस्टम के चलते बदहाल जिंदगी जी रहे मिडिल क्लास को नकली नोटों के सरगनाओं के साथ बेहतर संजोया है लेकिन वो बात नहीं बन पाई है जो उन्होंने अपनी पूर्व की फिल्मों और वेब सीरीज द फैमिली मैन में दिखायी थी।
कहानी सनी (शाहिद कपूर), उसके नानाजी (अमोल पालेकर), सनी के दोस्त फिरोज (भुवन अरोड़ा) और दूसरी तरफ जांच अधिकारी माइकल (विजय सेतुपति), उसकी टीम से मेघना (राशि खन्ना) और जाली नोटों के सरगना मंसूर दलाल (केके मेनन) की दो समानांतर अलग दुनिया से शुरू होती है। माइकल नकली नोटों के सरगना को पकडऩा चाहता है, सनी गरीबी से दूर होना चाहता है, इसके लिए वह अपने नाना की प्रिंटिंग प्रेस में नकली नोट छापता है जिसके चलते वह नकली नोटों के सरगना मंसूर दलाल के चक्कर में फंस जाता है।
सनी अपने नाना के सपने साकार करने और उन्हें कर्ज से उबारने को अपने जिगरी दोस्त फिरोज के साथ नकली नोटों की छपाई में उतरता है। शुरुआत छोटे लेवल पर होती है। शुरुआती झटकों के बाद किस्मत साथ भी देती है। लिहाजा आगे चलकर सनी का अपराध बोध भी कम होता चला जाता है। फिर सनी और फिरोज किस तरह आगे चलकर मेघना, माइकल की रडार पर और मंसूर दलाल की दलदल में कैसे आते हैं, क्या होता है, वह सब कुछ 8 एपिसोड्स में चलता है।
निर्देशक के तौर पर राज और डीके पूरी तरह से निराश करते हैं। उन्होंने मध्यम वर्गीय को तो शिद्दत से पेश किया है लेकिन फिल्म के मुख्य प्लॉट पर आने में उन्हें देर लगती है। तब तक सीरीज आधी से ज्यादा समाप्त हो चुकी होती है। इस देरी का सबसे बड़ा कारण उन्होंने नोट की छपाई की डिटेलिंग में वक्त जाया किया है। इससे दर्शक बोरियत महसूस करता है। मंसूर दलाल का ट्रैक और सनी को अपने ट्रैप में लेने का घटनाक्रम भी सही नजर नहीं आता है।
लेखन की कमजोरी की वजह से किरदार उभर नहीं पाए हैं जिसके चलते अदाकारों को अपनी अदाकारी दिखाने का अवसर नहीं मिला है। नाना के रूप में अमोल पालेकर का किरदार मकसद विहीन है, अभिनय भी उनका काम चलाऊ है। विजय सेतुपति सरीखी अदाकार को वे सामान्य तौर पर ही पेश कर पाए हैं। शाहिद कपूर शुरूआत में कुछ प्रभाव छोडते हैं लेकिन बाद में वे पूरी तरह से निराश करते हैं। सेतुपति की सहायक के रूप में राशि खन्ना भी प्रभावहीन हैं।
शाहिद कपूर की यह पहली वेब सीरीज है। सीरीज का विषय अच्छा था लेकिन कहानी उतनी ही बोर व धीमी गति की है, जिसके चलते दर्शक स्वयं को उससे जुड़ा हुआ महसूस नहीं करता है। 8 एपिसोड की इस सीरीज में चंद एपिसोड के बाद केवल खानापूर्ति करने वाली कहानी मिलती है। कहानी लम्बी नहीं है, इसे वेब सीरीज के चक्कर में रबड़ की तरह खींचा गया है। इस पर तो दो घंटे की फिल्म ही सही रहती। निर्देशन भी प्रभावहीन हैं।
निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि यदि आपके पास देखने के लिए और कुछ नहीं है तो आप फर्जी को देखते हुए अपना कुछ समय बोरियत भरा कर सकते हैं।
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