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ऋषि चिंतन: धैर्य—एक महत्वपूर्ण गुण है
संसार में रहते हुए विपरीत परिस्थितियों
अथवा आपत्तियों का आना स्वाभाविक है । विशेषकर
यदि हम कोई महत्वपूर्ण कार्य करना चाहते हैं तो उसमें अनेक कठिनाइयों का मुकाबला करना
अनिवार्य ही समझना चाहिए। अनेक व्यक्ति ऐसे ही भय के कारण किसी भारी काम में हाथ नहीं
डालते । संभव है वे इस जीवन में आपत्तियों से बच जाये पर वे किसी प्रकार की प्रगति,
उन्नति भी नहीं कर सकते और एक तत्वदर्शी की निगाह में उनका जीवन कीड़े-मकोड़ों से बढ़कर
नहीं
होता । जिसने शरीर धारण किया है उसे सुख-दु:ख दोनों का ही अनुभव करना होगा । शरीर धारियों को केवल सुख ही सुख या केवल दु:ख कभी प्राप्त नहीं हो सकता। जब यही बात है कि शरीर धारण करने पर सुख-दु:ख दोनों का ही भोग करना है तो फिर दु:ख में अधिक उद्विग्न क्यों हो जाँय ? दु:ख-सुख तो शरीर के साथ लगे ही रहते हैं । हम धैर्य धारण करके उनकी प्रगति को ही क्यों न देखते रहें । जिन्होंने इस रहस्य को समझ कर धैर्य का आश्रय ग्रहण किया है, संसार में वही सुखी समझे जाते हैं । दु:खों की भयंकरता को देखकर विचलित होना प्राणियों का स्वभाव है किंतु जो ऐसे समय में भी विचलित नहीं होता वहीं पुरुषसिंह "धैर्यवान" कहलाता है । आखिर हम अधीर क्यों होते हैं ? इसका कारण हमारे हृदय की कमजोरी के सिवा और कुछ भी नहीं है । इस बात को सभी जानते हैं कि आज तक संसार में ब्रह्मा से लेकर कृमि कीट पर्यंत संपूर्ण रुप से सुखी कोई भी नहीं हुआ है । सभी को कुछ न कुछ दु:ख अवश्य हुए हैं । फिर भी मनुष्य दु:खों के आगमन से व्याकुल होता है तो यह उसकी कमजोरी ही कही जा सकती है । महापुरुषों के सिर पर सींग नहीं होते । वह भी हमारी तरह दो हाथ और दो पैर वाले साढ़े तीन हाथ के मनुष्याकार जीव होते हैं । किंतु उनमें विशेषता यह होती है कि दु:खों के आने पर वह हमारी तरह अधीर नहीं हो जाते । उन्हें प्रारब्ध कर्मों का भोग समझकर वे प्रसन्नता पूर्वक सहन करते हैं । पांडव दु:खों से कातर होकर अपने भाइयों के दास बन गए होते तो, मोरध्वज पुत्र शोक से दु:खी होकर मर गए होते तो, राजा हरिश्चंद्र राज्य के लोभ से अपने वचनों से फिर गए होते तो, श्री रामचंद्र वन के दु:खों की भयंकरता से घबराकर अयोध्यापुरी में रह गए होते तो, शिबी राजा ने यदि शरीर के कटने के दु:खों से कातर होकर कबूतर को बाज के लिए दे दिया होता तो ? तो इनका नाम तक कौन जानता ? यह भी असंख्य नरपतियों की भांति काल के गाल में चले गए होते, किंतु इनका नाम अभी तक ज्यों का त्यों ही जीवित है इसका एकमात्र कारण उनका धैर्य ही है । उपरोक्त प्रवचन आचार्य पंडित श्रीराम शर्मा द्वारा लिखित पुस्तक आपत्तियों में धैर्य➖ पृष्ठ-12 से लिया गया है।
होता । जिसने शरीर धारण किया है उसे सुख-दु:ख दोनों का ही अनुभव करना होगा । शरीर धारियों को केवल सुख ही सुख या केवल दु:ख कभी प्राप्त नहीं हो सकता। जब यही बात है कि शरीर धारण करने पर सुख-दु:ख दोनों का ही भोग करना है तो फिर दु:ख में अधिक उद्विग्न क्यों हो जाँय ? दु:ख-सुख तो शरीर के साथ लगे ही रहते हैं । हम धैर्य धारण करके उनकी प्रगति को ही क्यों न देखते रहें । जिन्होंने इस रहस्य को समझ कर धैर्य का आश्रय ग्रहण किया है, संसार में वही सुखी समझे जाते हैं । दु:खों की भयंकरता को देखकर विचलित होना प्राणियों का स्वभाव है किंतु जो ऐसे समय में भी विचलित नहीं होता वहीं पुरुषसिंह "धैर्यवान" कहलाता है । आखिर हम अधीर क्यों होते हैं ? इसका कारण हमारे हृदय की कमजोरी के सिवा और कुछ भी नहीं है । इस बात को सभी जानते हैं कि आज तक संसार में ब्रह्मा से लेकर कृमि कीट पर्यंत संपूर्ण रुप से सुखी कोई भी नहीं हुआ है । सभी को कुछ न कुछ दु:ख अवश्य हुए हैं । फिर भी मनुष्य दु:खों के आगमन से व्याकुल होता है तो यह उसकी कमजोरी ही कही जा सकती है । महापुरुषों के सिर पर सींग नहीं होते । वह भी हमारी तरह दो हाथ और दो पैर वाले साढ़े तीन हाथ के मनुष्याकार जीव होते हैं । किंतु उनमें विशेषता यह होती है कि दु:खों के आने पर वह हमारी तरह अधीर नहीं हो जाते । उन्हें प्रारब्ध कर्मों का भोग समझकर वे प्रसन्नता पूर्वक सहन करते हैं । पांडव दु:खों से कातर होकर अपने भाइयों के दास बन गए होते तो, मोरध्वज पुत्र शोक से दु:खी होकर मर गए होते तो, राजा हरिश्चंद्र राज्य के लोभ से अपने वचनों से फिर गए होते तो, श्री रामचंद्र वन के दु:खों की भयंकरता से घबराकर अयोध्यापुरी में रह गए होते तो, शिबी राजा ने यदि शरीर के कटने के दु:खों से कातर होकर कबूतर को बाज के लिए दे दिया होता तो ? तो इनका नाम तक कौन जानता ? यह भी असंख्य नरपतियों की भांति काल के गाल में चले गए होते, किंतु इनका नाम अभी तक ज्यों का त्यों ही जीवित है इसका एकमात्र कारण उनका धैर्य ही है । उपरोक्त प्रवचन आचार्य पंडित श्रीराम शर्मा द्वारा लिखित पुस्तक आपत्तियों में धैर्य➖ पृष्ठ-12 से लिया गया है।
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