Advertisement
ऋषि चिंतन: धर्म का सही स्वरूप समझें—पं.श्रीराम शर्मा आचार्य
हम सौभाग्य या दुर्भाग्य से अग्नि परीक्षा के युग में पैदा हुए हैं। इसलिए सामान्य काल की अपेक्षा हमारे सामने उत्तरदायित्व भी अत्यधिक हैं। अतएव उपेक्षा करने का दंड भी अधिक है। संकट काल के कर्तव्य और उत्तरदायित्व प्रतिबंध एवं दंड विधान भी विशेष होते हैं। आज वैसी ही स्थिति है । मानव जाति अपनी दुर्बुद्धि से ऐसे दलदल में फँस गई है जिसमें से बाहर निकलना उसके लिए कठिन हो रहा है । मर्मांतक पीड़ा से उसे करुण क्रंदन करना पड़ रहा है । परिस्थितियाँ उन सभी समर्थ व्यक्तियों को पुकारती है कि इस विश्व संकट की घड़ी में उन्हें कुछ साहस और त्याग का परिचय देना ही चाहिए । पतन को उत्थान में बदलने के लिए कुछ करना ही चाहिए। हम चाहें तो थोड़ा-थोड़ा सहयोग देकर देश, धर्म, समाज एवं संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं और नया संसार, सुंदर संसार, उत्कृष्ट संसार बनाने के लिए एक चतुर शिल्पी की तरह अपनी सह्रदयता कलाकारिता का परिचय दे सकते हैं। पेट भरने के लिए पशु की तरह जीवित रहना इन परिस्थितियों में कैसे संभव हो सकता है ?
धर्म का रूप आज पूजा, पाठ, तिलक, छाप, जटा, कमंडल, स्नान, मंदिर दर्शन या थोड़ा सा दान-पुण्य कर देना मात्र मान लिया गया है । इतना कुछ कर लेने वाले अपने को धर्मात्मा समझने लगते हैं। हमें समझना और समझाना होगा कि यह धर्म का एक नगण्य अंश है । समग्र धर्म की धारणा आत्म संयम, उज्ज्वल चरित्र, उदारता, ज्वलंत देशभक्ति, एवं लोक सेवा की तत्परता में ही सम्भव है। धर्मात्मा के लिए दयालु, क्षमाशील बनना ही पर्याप्त नहीं वरन् उसके लिए सद्गुणी शिष्ट ईमानदार, कर्तव्य परायण, साहसी, विवेकशील ,अनीति के विरुद्ध लोहा लेने का शौर्य एवं कठोर श्रम करने का उत्साह भी अनिवार्य अंग है। जब तक इन गुणों का विकास न हो तब तक कोई व्यक्ति सच्चे अर्थों में कदापि धर्मात्मा कहलाने का अधिकारी नहीं बन सकता।
हमें जनसाधारण को धर्म का वास्तविक स्वरूप समझाना पड़ेगा और बताना पड़ेगा कि सुख शांति का एकमात्र अवलंबन धर्म ही है। जो धर्म की रक्षा करता है उसकी रक्षा होती है और जो धर्म को मारता है धर्म उसे भी मार डालता है। अधर्म के मार्ग पर न कोई अब तक फला-फूला है और न सुख-शांति से रहा है। आगे भी यही क्रम अंतराल तक चलने वाला है। यह आस्था जब तक जनमानस में गहराई तक प्रवेश न करेगी तब तक मानव जाति की समस्याओं एवं कठिनाइयों का हल न हो सकेगा। हमें अच्छा मनुष्य बनना चाहिए। नेक मनुष्य बनना चाहिए और सशक्त मनुष्य बनना चाहिए। शक्ति, नेकी और व्यवस्था यह तीनों ही धर्म के गुण हैं । व्यक्ति का समग्र विकास ही धर्म का उद्देश्य है।
उपरोक्त प्रवचन पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित पुस्तक महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया, पृष्ठ-145 से लिया गया है।
धर्म का रूप आज पूजा, पाठ, तिलक, छाप, जटा, कमंडल, स्नान, मंदिर दर्शन या थोड़ा सा दान-पुण्य कर देना मात्र मान लिया गया है । इतना कुछ कर लेने वाले अपने को धर्मात्मा समझने लगते हैं। हमें समझना और समझाना होगा कि यह धर्म का एक नगण्य अंश है । समग्र धर्म की धारणा आत्म संयम, उज्ज्वल चरित्र, उदारता, ज्वलंत देशभक्ति, एवं लोक सेवा की तत्परता में ही सम्भव है। धर्मात्मा के लिए दयालु, क्षमाशील बनना ही पर्याप्त नहीं वरन् उसके लिए सद्गुणी शिष्ट ईमानदार, कर्तव्य परायण, साहसी, विवेकशील ,अनीति के विरुद्ध लोहा लेने का शौर्य एवं कठोर श्रम करने का उत्साह भी अनिवार्य अंग है। जब तक इन गुणों का विकास न हो तब तक कोई व्यक्ति सच्चे अर्थों में कदापि धर्मात्मा कहलाने का अधिकारी नहीं बन सकता।
हमें जनसाधारण को धर्म का वास्तविक स्वरूप समझाना पड़ेगा और बताना पड़ेगा कि सुख शांति का एकमात्र अवलंबन धर्म ही है। जो धर्म की रक्षा करता है उसकी रक्षा होती है और जो धर्म को मारता है धर्म उसे भी मार डालता है। अधर्म के मार्ग पर न कोई अब तक फला-फूला है और न सुख-शांति से रहा है। आगे भी यही क्रम अंतराल तक चलने वाला है। यह आस्था जब तक जनमानस में गहराई तक प्रवेश न करेगी तब तक मानव जाति की समस्याओं एवं कठिनाइयों का हल न हो सकेगा। हमें अच्छा मनुष्य बनना चाहिए। नेक मनुष्य बनना चाहिए और सशक्त मनुष्य बनना चाहिए। शक्ति, नेकी और व्यवस्था यह तीनों ही धर्म के गुण हैं । व्यक्ति का समग्र विकास ही धर्म का उद्देश्य है।
उपरोक्त प्रवचन पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित पुस्तक महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया, पृष्ठ-145 से लिया गया है।
ये भी पढ़ें - अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे
Advertisement
Advertisement
गॉसिप्स
Advertisement
Traffic
Features
