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ऋषि चिंतन: मन के दास नहीं, स्वामी बनें
हमारे मानसिक संकल्प, मनोबल और दृढ़ इच्छाशक्ति में वह कार्योत्पादक शक्ति प्रस्तुत है जो सदैव कार्योत्पादक फलों को ही उत्पन्न करती है । जब-जब हम अपने मन को दुर्बल, अहितकर भावों से भरते हैं, अपनी बुराई, बीमारी, हानि, मृत्यु या बुढ़ापे की बात सोचते हैं, तब-तब हम अपनी शक्तियों को पंगु कर लेते हैं । स्वयं अपना गला अपने ही हाथों घोंटते हैं ।
प्रत्येक मनुष्य में ऐसी ईश्वर प्रदत्त शक्ति अंतर्निहित है, जिससे वह आयु को बढ़ा सकता है, अपनी आयु दीर्घ कर सकता है किंतु इसके लिए यह आवश्यक है कि वह अपने मन पर काबू करे, चित्त संयम का अभ्यास करें और दूसरों के बुरे संकेतों का दास न बने । जब तक हमें अपने ऊपर विश्वास है, जब तक हम दुर्भाग्य का रोना नहीं रोते हैं, दूसरों का अंधानुकरण नहीं करते हैं, तब तक हम अपने भावी के सृष्टा रह सकते हैं ।
एक प्राचीन ऋषि का कथन है - मनुष्य मरता नहीं, प्रत्युत वह अपने को स्वयं ही मारता है । यह कथन अनेकों के विषयों में सत्य है । अपने मन द्वारा वे वैसा विकृत काल्पनिक चित्र तैयार करते हैं कि दीर्घायु नहीं हो पाते । मनुष्य अपने ही विचारों से अल्प या दीर्घजीवी बनता है । चाहे गुप्त रूप से मन के किसी आंतरिक कोने में कोई कल्पना करते रहें तो भी परमेश्वर उसे देखते हैं और उसका फल देते हैं । ’मन एवं मनुष्याणां कारण बंध मोक्षयो:" यह अटल सिद्धांत है ।
उपरोक्त प्रवचन पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित पुस्तक दीर्घ जीवन के रहस्य - पृष्ठ-20 से लिया गया है।
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