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समर्थ होते हुए भी असमर्थ क्यों?—पं श्रीराम शर्मा आचार्य

मनुष्य उतना तुच्छ नहीं है जितना कि वह अपने को समझता है। वह सृष्टा की सर्वोपरि कलाकृति है। न केवल वह प्राणियों का मुकुटमणि हेै, वरन् उसकी गतिविधियाँ भी असाधारण हैं। प्रकृति की पदार्थ सम्पदा उसके चरणों पर लोटती है। प्राणि समुदाय उसका वशवर्ती और अनुचर है। उसकी न केवल संरचना अद्भुत है, वरन् इन्द्रिय समुच्चय की प्रत्येक इकाई अजस्र आनन्द- उल्लास हर जगह उड़ेलते रहने की विशेषताओं से सम्पन्न है। ऐसा अद्भुत शरीर सृष्टि में कहीं भी किसी भी जीवधारी के किस्से नहीं आया।
मन: संस्थान उससे भी विलक्षण है। जहाँ अन्य प्राणिमात्र अपने निर्वाह तक की सोच पाते हेैं, वहाँ मानवी मस्तिष्क भूत- भविष्य का तारतम्य मिलाते हुए वर्तमान का श्रेष्ठतम सदुपयोग कर सकने में समर्थ है। ज्ञान और विज्ञान के दो पंख उसे ऐसे मिले हैं जिनके सहारे वह लोक लोकान्तरों का परिभ्रमण करने, दिव्य लोक तक पहुँचने का अधिकार जमाने में समर्थ है।
इतना सब होते हुए भी स्वयं को तुच्छ मान बैठना एक विडम्बना ही है। यह दुर्भाग्र्र्य जिस कारण उस पर लदता है , वह आत्म- विश्वास की कमी। अपने ऊपर विश्वास न कर पाने के कारण वह समस्याओं को सुलझाने, कठिनाइयों से उबरने और सुखद सम्भावनाओं को हस्तगत करने में दूसरों का सहारा तकता है। दूसरे कहाँ इतने फालतू होंगे कि हमारी सहायता के लिए दौड़ पड़ें? बात तभी बनती है, जब मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होता है, अपनीक्षमाताओं पर भरोसा करके, अपने साधनों व सूझ- बूझ के सहारे आगे बढऩे का प्रयत्न करता है। यह भली भाँति समझा जाना चाहिए कि आत्म- विश्वास संसार का सबसे बड़ा बल है, एक शक्तिशाली चुम्बक है, जिसके आक र्षण से अनुकूलतायें स्वयं खिंचती चली आती हैं।
मन: संस्थान उससे भी विलक्षण है। जहाँ अन्य प्राणिमात्र अपने निर्वाह तक की सोच पाते हेैं, वहाँ मानवी मस्तिष्क भूत- भविष्य का तारतम्य मिलाते हुए वर्तमान का श्रेष्ठतम सदुपयोग कर सकने में समर्थ है। ज्ञान और विज्ञान के दो पंख उसे ऐसे मिले हैं जिनके सहारे वह लोक लोकान्तरों का परिभ्रमण करने, दिव्य लोक तक पहुँचने का अधिकार जमाने में समर्थ है।
इतना सब होते हुए भी स्वयं को तुच्छ मान बैठना एक विडम्बना ही है। यह दुर्भाग्र्र्य जिस कारण उस पर लदता है , वह आत्म- विश्वास की कमी। अपने ऊपर विश्वास न कर पाने के कारण वह समस्याओं को सुलझाने, कठिनाइयों से उबरने और सुखद सम्भावनाओं को हस्तगत करने में दूसरों का सहारा तकता है। दूसरे कहाँ इतने फालतू होंगे कि हमारी सहायता के लिए दौड़ पड़ें? बात तभी बनती है, जब मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होता है, अपनीक्षमाताओं पर भरोसा करके, अपने साधनों व सूझ- बूझ के सहारे आगे बढऩे का प्रयत्न करता है। यह भली भाँति समझा जाना चाहिए कि आत्म- विश्वास संसार का सबसे बड़ा बल है, एक शक्तिशाली चुम्बक है, जिसके आक र्षण से अनुकूलतायें स्वयं खिंचती चली आती हैं।
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